बर्फ का दरिया है पिंडारी हिमनद

प्रकृति ने अपनी छटा हिमालय पठारों, शृंखलाओं और इसकी घाटियों में दिल खोलकर बिखेरी है कि पर्यटक इसकी झीलों, देवस्थलों और हिमानियों के नैसर्गिक सौंदर्य को लीलने यहां खींचे चले आते हैं। हिमालय के हिमनद हैं ही इसी योग्य कि इन्हें बार-बार निहारने को मन करता है। कफनी, मिलम, नामिक और पिंडारी आदि कुछ ऐसे हिमनद हैं जिन्हें संसार के कुछ खास हिमनदों में गिना जा सकता है। जिनकी थाह पाने पाश्चात्य देशों से भी पर्यटक चले आते हैं। इन हिमनदों के बारे में मैंने खूब सुना था, मन में बहुत चाहत थी कि इनके साक्षात दर्शन करूं। विशेषकर उन हिमनदों के जो गंगा जैसी पवित्र नदी को जन्म देते हैं। पिंडार नदी कफनी, अलकनंदा और भागीरथी से मिलकर गंगा को जन्म देती है। जो अपने अगाध जल प्रवाह से भारत के उत्तर पश्चिमी मैदान भाग को पवित्र करती है। इन चारों हिमनदों की साहसिक यात्रा का कार्यक्रम था, परंतु उपयुक्त समय नहीं मिल रहा था। मेरा स्थानंरण जम्मू केंद्र से अलमोड़ा आकाशवाणी में 1987 में हुआ, तो घर से बाहर जाने की त्रासदी ने आ घेरा था। किसी वरिष्ठ अधिकारी ने समझाया कि जैसे मर्जी करो भारत सरकार पूरे परिवार के साथ अलमोड़ा की सैर करवा रही है जाकर देख आना मन न लगे तो लौट आना। बस फिर क्या था मन मसोस कर हम अलमोड़ा पहुंचे। उसी प्रकार की शृंखलाएं, जलस्रोत और यहां तक कि लोगों का रहन-सहन और रस्मों रिवाज भी काफी हद तक मिलते जुलते हैं। धीरे-धीरे मन लग गया और शुरू हुआ अंतहीन सफर कमाऊं की संस्कृति की खोज का, जिसने यहां के लोगों के साथ ऐसा बांधा कि आज वर्षों के अंतराल के बाद भी नहीं छूट पाया। प्रातः आठ बजे एक पूरी बस करके हम बागेश्वर की ओर चल पड़े। बागेश्वर अलमोड़ा से 80-85 किमी.पड़ता है। बागेश्वर एक धार्मिक कस्बा है, जो शिव मंदिर और गोमती तथा सरयु नामक पवित्र नदियों के किनारे बसा होने के कारण प्रयाग के तौर पर इसकी मान्यता और भी बढ़ गई है। यहां शिवरात्रि के उपलक्ष्य में एक मेला लगता है जो अब राष्ट्रीय तौर पर मनाया जाता है। यात्रा का दूसरा पड़ाव था धाकुरी। धाकुरी में एक धार्मिक स्थान मंदिर के तौर पर बना है। धाकुरी की ऊंचाई 2700 फुट है। यहां आकर लगता है कि विश्व के शिखर पर खड़े हैं। यहां से हिमालय की सुंदर डूंगा और नंदाखाट की शृंखलाओं को निहारा जा सकता है। धाकुरी से आगे का सफर अनुपातितः सुगम ही था। यहां से खाती का लगभग साढ़े आठ किमी. सफर हमने जल्दी ही तय कर लिया। ये कमाऊ का एक गांव है, जहां कमाऊनी संस्कृति के दर्शन किए जा सकते हैं। अनेक घरों के बाहरी प्रसारों पर देवी-देवताओं की आकृतियों को उकेरा गया था। खाती से अगला पड़ाव द्वाली 12 किमी. दूर था। घने जंगलों को हम काफी पीछे छोड़ आए थे। कुछ दूर सामने एक इमारत दिखाई दी। किसी अंग्रेज ने अपना शौक पूरा करने के लिए इसे बनवाया था ताकि वह यहां रहकर पिंडर के दर्शन जब चाहे कर सके। यह स्थान फुरकिया के नाम से जाना जाता है। इससे आगे अद्भुत दृश्य देखने को मिला कि नीचे गिरती हुई जलधारा बर्फ में बदल गई और अनेक सामांतर बर्फीली रेखाएं पर्वतों से नीचे लटक रही हैं। आगे चलने पर सामने जीरो प्वाइंट दिखा। संसार का अंतिम आश्चर्य बर्फ का अंतहीन दरिया। बर्फ ही बर्फ थी और बर्फ की ही एक गुफा में से एक पतली धारा जोर से निकल रही थी। हम मंत्रमुग्ध हुए देखते रहे। वहां से वापस तो आ गए परंतु वह दृश्य एवं वह वातावरण भविष्य में कभी न पकड़ पाए।

– डा. अशोक जेरथ