बीपीएल मुक्त होने के लिए

बीपीएल मुक्त होने की नई व्याख्या में हिमाचल के ग्रामीण विकास मंत्री वीरेंद्र कंवर के प्रयास साहसी व क्रांतिकारी दिखाई दे रहे हैं, हालांकि यह विषय लाभप्रद राजनीति का हिस्सा रहा है। प्रदेश में दो लाख बयासी हजार बीपीएल परिवारों के समूह का सियासी आवरण अपने भीतर एक तरह से वोट बैंक की सत्ता रही है और इसलिए एक लाख परिवारों को सूची से हटाने का सामर्थ्य मंत्री के इरादों को ताकतवर बनाता है। यह एक तरह से पंचायती राज की व्यवस्था को बदलने की लड़ाई है और सीधे-सीधे सामाजिक क्षमता को उत्तीर्ण करने की जद्दोजहद भी। हिमाचल में बीपीएल होने के तर्क और वित्तीय लाभ पाने की व्यवस्था कितनी भी सुदृढ़ रही हो, इसके बावजूद हिमाचल में आर्थिक दरिद्रता को मापने का यह कतई सूचक नहीं रहा। गरीब या गरीबी के राष्ट्रीय आंकड़ों के विपरीत हिमाचल के अधिकांश बीपीएल परिवार अपनी चारदीवारी के भीतर कम से कम मनहूस जिंदगी तो बसर नहीं कर रहे, बल्कि पूरी चयन पद्धति का खोट, सामाजिक होड़ में बीपीएल परिवार की मुहर में जीना चाहता है। सबसे अधिक शिकायतें और बीपीएल चयन प्रक्रिया के दोष अगर सामने आए हैं, तो सुविधाओं की छीना झपटी हो रही है। सफेद चादर पर बीपीएल चयन प्रक्रिया के दाग बिलकुल साफ और प्रमाणिकता के साथ कहते रहे हैं कि हिमाचल की ईमानदारी कम से कम इस मामले में गरीब हो गई। दूसरी ओर बीपीएल परिवारों की श्रृंखला में ग्राम प्रधानों तथा अन्य प्रतिनिधियों ने सरकारी धन का बुरी तरह मजाक उड़ाना शुरू किया। इतना ही नहीं मनरेगा की दिहाड़ी भी एक तरह से सियासी लूट का आशीर्वाद बनकर काम कर रही है, जबकि इसके तहत हो रहा विकास अति दरिद्र और घटिया है। केंद्र की योजनाओं में हिमाचल के गांव ने क्या खोया-क्या पाया की समीक्षा करें, तो हालात ज्यादा असामाजिक या राजनीतिक होते जा रहे हैं। गांव की दहलीज का चरित्र बदला है, तो आर्थिक संसाधनों का दुरुपयोग बढ़ गया। पर्यावरण हार गया, खेतीबाड़ी की परंपराएं अब मनरेगा की दिहाड़ी से खुश हैं, तो सस्ते अनाज का डिपो बीपीएल परिवारों की चाकरी में लुट गया। कुल मिलाकर बीपीएल चयन अब एक तरह के राजनीतिक विशेषाधिकार के रूप में सामाजिक समझौता है, तो मंत्री इस ताने-बाने से एक लाख का आंकड़ा घटाने का साहसिक कदम लेकर ग्रामीण उत्पादकता को पुनः उसके पारंपरिक खूंटे से बांधना चाह रहे हैं। यह स्वागत योग्य लक्ष्य है और अगर वह इसे पूरा कर लेते हैं, तो यह सामाजिक व सांस्कृतिक उत्थान भी होगा। मंत्री बीपीएल मुक्त हिमाचल में स्वरोजगार का नया शंखनाद तथा ग्रामीण आर्थिकी का उद्गार कर रहे हैं। कृषि-बागबानी, पशुपालन, पुष्प खेती, मत्स्य पालन, मौन पालन, डेयरी, रेशम उत्पादन सरीखे दर्जनों व्यवसाय हैं, जो बीपीएल के तमगे को हरा सकते हैं, बशर्ते ग्रामीण परिवेश में आत्मनिर्भर होने का संदेश आत्मसम्मान से जुड़े। आज शिक्षा एक नए मुकाम पर खड़ी है और नीतियों का संचालन भी स्वरोज के श्रम को निठल्ला कर रहा है, तो ग्रामीण जनता को वापस खेत में ले जाना आसान नहीं और न ही हमारे वैज्ञानिक तौर तरीके इस काबिल बने कि कृषि एवं बागबानी व्यापक स्तर पर आजमाई जा सके। स्वरोजगार के जरिए बीपीएल को चुनौती देने का इरादा पुनः खेत को आशा से भरता है, लेकिन मनरेगा के माध्यम से कुछ ढांचागत बदलाव चाहिएं। गांव को एक इकाई मानकर जब तक मनरेगा कार्य दिवसों का मॉडल सामने नहीं आएगा, तब तक कई कार्यक्रम आपस में टकराएंगे। खेत से आवारा पशु तथा बंदरों को भगाने या ग्रामीण पर्यटन की अधोसंरचना निर्माण में अगर मनरेगा की दिहाड़ी सुनिश्चित की जाए, तो स्वरोजगार पैदा होगा। विपणन बोर्ड के मार्फत गांव का हाट बाजार स्थानीय उत्पाद का विक्रय केंद्र बने तथा किसान-बागबान की कमाई दोगुना हो तो निश्चित रूप से बीपीएल का लांछन दूर होगा।