भूत से डरें नहीं, वह तो बस भूत है

भूत का व्यक्तित्व अपने ऊपर थोपकर वह ऐसी ही बातें करता है, मानो वह सचमुच ही भूत की स्थिति में पहुंच गया हो। भूत को जो कहना चाहिए सो ही वह कह रहा हो। यह कथन क्रमबद्ध तो होता है, उसकी संगति बैठती है, पर होता सर्वथा काल्पनिक है। भोले लोग उसे तथ्य मान बैठते हैं और उन्माद की स्थिति में कहा गया था, उसी पर विश्वास करके वैसा ही करने या मानने लगते हैं…

-गतांक से आगे…

भूत का व्यक्तित्व अपने ऊपर थोपकर वह ऐसी ही बातें करता है, मानो वह सचमुच ही भूत की स्थिति में पहुंच गया हो। भूत को जो कहना चाहिए सो ही वह कह रहा हो। यह कथन क्रमबद्ध तो होता है, उसकी संगति बैठती है, पर होता सर्वथा काल्पनिक है। भोले लोग उसे तथ्य मान बैठते हैं और उन्माद की स्थिति में कहा गया था, उसी पर विश्वास करके वैसा ही करने या मानने लगते हैं। कई मनुष्यों को ऐसी आवाजें सुनाई पड़ती हैं, मानो किसी ने उनसे कुछ बात जोर देकर कही है। लगता है उन्होंने वैसा सुना है। किसी-किसी को ऐसा लगता है कोई भीतर से बोल रहा है। पेट में बैठकर या सिर पर चढ़कर कुछ बता रहा है। इस बीमारी को हैवीफे्रनिक शिजोफ्रेनिया कहते हैं। भूत-पलीतों के, देवी-देवताओं के संदेश, आह्वान, आदेश प्रायः इसी प्रकार के होते हैं। प्रेमी और प्रेमिकाओं को इसी प्रकार की अनुभूतियां होती हैं, मानो उनका प्रिय पात्र सामने खड़ा कुछ इशारे कर रहा है या कह रहा है। जिनके प्रियजन जल्दी ही मरे हैं, उनका वियोग निरंतर छाया रहता, उन्हें भी झपकी आते ही मृतात्मा निकट आकर कुछ करती, कहती दिखाई पड़ती है। भक्त लोगों को उनके इष्ट देव भी ऐसे ही कौतूहलवर्धक परिचय देते हैं। मानसिक अस्त-व्यस्तता को दो भागों में विभाजित किया जाता है, 1. न्यूरोसिस, 2. साइकोसिस। न्यूरोसिस वह स्थिति है, जिसमें मनुष्य अंट-संट सोचता और आंय-बांय बोलता है। बेकार की चिंताएं और बे-सिर-पैर की कल्पनाएं उसे हैरान करती रहती हैं। चिंता में डूबा, आशंकाओं से ग्रसित, भयभीत एवं असंभव चिंतन के घोड़े दौड़ाते हुए उसे आए दिन देखा जा सकता है। कभी कुछ, कभी कुछ खब्त सवार रहता है। साइकोसिस इससे आगे की और अधिक बिगड़ी हुई स्थिति है। उसमें व्यक्ति पूर्ण रूप से तो नहीं, पर किसी विशेष समय, परिस्थिति, घटना, वर्ग या व्यक्ति के संबंध में उसके कुछ ऐसे भले या बुरे आग्रह जम जाते हैं, जिनका वास्तविकता के साथ बहुत कम संबंध होता है। उसकी अपनी कल्पना और मान्यता एक अलग से स्वप्नलोक रच लेती है और उन्हीं में वह खोया रहता है। भूत-बाधाओं के अनेक किस्से वस्तुतः मानसिक रोगियों के बारे में फैली भ्रांति का परिणाम होते हैं। उनका सही-सही उपचार करना चाहिए। अन्यथा रोग-पीडि़त स्वजनों से असमय ही बिछुड़ना पड़ जाता है और दोष भूतों का लगता है।

 (यह अंश आचार्य श्री राम शर्मा द्वारा रचित किताब ‘भूत कैसे होते हैं, क्या करते हैं’ से लिए गए हैं)