महफिल से निकलकर पाठक की गली तक ‘दस्तक’

अपने लहजे की धीमी आंच पर जैसे गजल को पकाने के लिए रख दिया हो। यहां गजल की निरंतरता और वक्त से रूबरू होती व्यवस्था में अपने होने की उम्मीद में शायरी खुलती है, तो किताब बनकर डा. मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ दस्तक देते हैं। हमारे मानसिक धरातल के किसी न किसी आधार पर जो गजल हो सकती है, उसी को ‘दस्तक’ देता ‘मधुर’ का यह संग्रह वास्तव में उर्दू-हिंदी शायरी की साझी विरासत में इजाफा करता है। शायरी की पसंद को बढ़ाता यह संकलन ‘मेरी’ से हटाकर गजल को सबकी बना देता है, ‘अब होश में रहकर करेगा खाक कोई शायरी, बहके हुए महके से हों जज्बात जब तब है गजल।’ ‘मधुर’ ने अपने मायनों की शायरी में जो गुफ्तगू की है, उसे समझने के लिए इतना ही काफी है, ‘बुझानी अगर आग आसान होती, किसी राख में फिर अंगारा न होता’ या इससे भी आगे, ‘बुना हुआ फरेब का न कोई जाल फेंकिए, जो चुभ रहा हूं शूल सा तो बस निकाल फेंकिए।’ शायर की यह खूबी रही है कि वह निजी महफिल से निकल कर पाठक की गली में आकर गले मिलता है, ‘कहां मापता कद यहां कोई अपना, कि हर शख्स खुद में बड़ा हो चला है।’ हिंदुस्तानी का खालिसपन संग्रह की रूह से बावस्ता है, तो उन कोहरों के बाहर की बेचैनियां भी दर्ज हुई हैं, जो संवेदनाओं को सहलाती हैं। इसलिए कुछ क्षण आते हैं, जब शायरी कान के बजाय पूरे हवास में उतर जाती है। ‘हो सुपुर्दे-खाक ही बस गर्द छंटती है यहां, कितना बदकिस्मत हमारा कारवां है जिंदगी।’ कई बार सीप से निकलते जज्बात में शायर की तड़प जब पेश होती है तो समुद्र भी प्यासा हो जाता है, ‘कभी आंख से इक भी टपका न आंसू, जरा सीख मुझसे तड़पना ऐ दुनिया।’ जिंदगी की तमाम चीखों के बीच और सूक्ष्म संवेदना में क्या कहा जाए, लेकिन कैसे कहा जाए उसके कई नमूने मिलेंगे, ‘बात करने से भी जिन से मिट न पाएं फासले, फिर यही अच्छा है उनसे फासलों से बात कर।’ शायरी का अपना संसार है और तिलिस्म भी। पाठक अपने भीतर के अनलिखे संवाद को जहां छू लेता है, वहीं शेर है-‘पत्थरों के शहर में हम दिल कहेंगे बस उसे, जो नजर को पढ़ के पढ़ ले बेजुबां की दास्तां।’ आत्मावलोकन अगर शायरी की कलम नहीं तो फिर आईने भी टूटेंगे जनाब, इसलिए, ‘अब आइने में आपका ये अक्स आप तो नहीं, अगर है खुद को देखना तो फिर जिगर से देखिए।’ दस्तक के जरिए मधुभूषण यूं तो गालिब के युग तक चलने की आहट का वर्णन करते हैं, लेकिन पन्ने कठोर कदमों की खबर निगाहों पर चढ़ी खून की परत को देते हैं। मुश्किल हकीकत के सरल वक्तव्य सरीखी महफिल में बेदाग रह जाने की फुर्सत नहीं, फिर भी शायर को यकीन है कि तेरी कहानी यूं चांदनी सी चमकती रहेगी अभी। इसलिए जिंदगी के लबादों को ओढ़ने की फितरत को बेनकाब करती पंक्तियां, ‘कर शुक्रिया निभा गए जो तुझ से जिंदगी, वर्ना रहे हैं खेलते तो मौत ही से हम।’ अपनी कसक और कसौटी के बीच यहां कोई लुकाछिपी नहीं, बल्कि कहीं-कहीं तनी हुई भवें ही सुना देती हैं भीतर की बात। सुशासन से राजनीति तक शेर खुद को पारंगत करते हैं, ‘आसमानों से लेते हैं जलजलों का जायजा, इस जमीं के साहिबों की बदगुमानी देखिए।’ बाजार संस्कृति, उपभोक्तावादी दृष्टिकोण और आम आदमी की दौड़-धूप से निकल कर ‘दस्तक’ का अपना लालित्य व माधुर्य है, जो किसी के भी नजदीक चस्पां हो जाता है। सूफीयाना तहरीर से वाकिफ शायरी, सही का दर्द और फरेब की नगरी से दूर माटी होने की कोशिश में किसान तक पहुंच जाती है, तो वहां शायर का खेत दस्तक देता है, ‘जो धरती के सीने पे हल लिख रहे हैं, पढ़ो वो भी कोई गजल लिख रहे हैं। दरख्तों के साए पे हक है तो उनका, कि जो धूप में आजकल लिख रहे हैं।’ 

हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश

क्या हिमाचली जीवन में साहित्य की गुंजाइश है या साहित्य के कारण समाज खुद को देख रहा है, इससे जुड़े बौद्धिक कारणों को समझना होगा। हिमाचली समाज की बौद्धिकता को परखने के लिए साहित्य की प्रासंगिकता में देखें, तो स्पष्ट है कि पाठक का लगाव लेखक के सरोकारों के साथ नहीं है। सामाजिक बौद्धिकता, यहां बुद्धिजीवी अवसरवाद से भी आगे निकलकर स्वार्थी चातुर्य से परिपूर्ण इसलिए है, क्योंकि शिक्षण, करियर व सफलता का मूल्यांकन निजी उपलब्धियों में हो रहा है। क्या ऐसे समाज की चेतना बदलने में लेखक कभी केंद्र बिंदु में रहा या विमर्श के सामाजिक संघर्ष में साहित्य की साधना हुई।  साहित्य के जरिए संस्कृति संवर्द्धन, लोक मानस व लोक प्रवृत्ति के निर्माण में योगदान कभी आंदोलित हुआ या लिखने की धुरी ही अलहदा तसदीक हो रही है। साहित्य से हिमाचली संवाद और सरोकार इसलिए भी कमजोर दिखाई देता है, क्योंकि  लेखकीय जगत भी बौद्धिक संभ्रम में है और उसे अपनी परायणता का हिसाब भाषा विभाग या अकादमी के कार्यक्रमों से ही मिलता है। सामाजिक जीवन की शुचिता में कभी साहित्य की बुलंदी परवान चढ़ती थी, लेकिन हिमाचल में अनर्गल बौद्धिक व शैक्षणिक परिपोषण केवल आधुनिकता का उत्पाद या उत्पादन बन गया है। लिहाजा सामाजिक स्तरीयकरण के दौर में आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक प्रतिष्ठा के मुहावरे मात्र इन्टिलैक्टचूअल हिपोक्रेसी या बौद्धिक ढोंग को ही प्रमाणित कर रहे हैं। बेशक जाति और वर्ण से ऊपर दिखाई देता हिमाचली मध्यम वर्ग अपनी क्षमता, स्वतंत्रता और मौलिकता के आवरण में सौम्यता प्रदर्शित करता है, लेकिन उसके लिए सृजन के अर्थ कहीं निजी आलोक में पारंगत हो रहे हैं। साहित्यकार के लिए हिमाचल में आम आदमी की अवधारणा को तय करना इसलिए भी कठिन है, क्योंकि जागरूकता की हर पायदान पर परिवर्तनशील, विचारशील, तर्कशील तथा विश्लेषक समाज को अपनी क्षमता के निर्धारण में सीखना व अपनाना आ गया है। सोशल मीडिया के प्रताप में हिमाचली समाज की अभिव्यक्ति को मिली संगठनात्मक शक्ति अब सियासत को साहित्य से भी कहीं नजदीक पा रही है। ऐसे में अगर लेखक राजनीति के ताने-बाने को तोड़ने के लिए आगे नहीं आएगा, तो साहित्य के सामर्थ्य को शायद ही समाज का समर्थन मिलेगा। साहित्य को अपनी पृष्ठभूमि पर खड़े राजनीतिक विमर्श से दो-चार होना पड़ेगा या समाज को इन धाराओं से मोड़ने के लिए वजह तराशते हुए लिखना होगा।  

  -निर्मल असो

वजूद खोती नदी

यह हफ्ता पर्यावरण को समर्पित रहा, लिहाजा चर्चित लेखिका सरोज परमार की कविता ‘वजूद खोती नदी’, इसे प्रासंगिक बनाती है –

कल-कल खिलखिलाती नदी

हम सब के बीच कैसे

खो रही वजूद

हैरान है झींगे

पशेमान है मछलियां

क्या पेड़, पंछी, बादल भी

देखते देखते यूं ही

गुम हो जाएंगे?

तब बहना, तैरना, फैलना

चहचहाना, उड़ना क्रियाएं

शायद व्याकरण की

धरोहर हो जाएंगी

इस परिदृश्य की कल्पना

कर मेरे भीतर की नदी

सूखने लगी है।