एते सप्त मया लोका मैत्रेय कथितास्यव।
पातालानि च सप्तैव ब्रह्मांडस्यष विस्तरः।
एतदंडकटाहेन त्रिर्यक् चोर्ध्वमघस्तथा।
कपित्थस्य यथा बीज सवतो वै समावृतम।
देशोत्तरेण पयसा मैत्रेमाण्ड च तद्वृतम।
सर्वोऽबुपरिधानोऽसौ वह्निना वेश्ष्ठितो वर्हिः।
वहिह्नश्च वायुना वायुमैत्रेय नभसा वृतः।
भूतादिनां नभः सोऽपि महाता परिवेष्टतः।
देशात्तरान्यशेषाणि मैंत्रेतानि सप्त वै।
महांत च समावृत्या प्रधानं समवस्थितम।
अनंतस्य न तस्यान्ता संख्यानं चापि विद्यते।
तदनंतमसंख्यातप्रमाणं चापि वै यतः।
हेतुभूतमोषरम प्रकृतिः सा परा मुने।
मंडानां तु सहस्राणां सहस्राण्ययुतानि च।
हे मैत्रेयजी! इस प्रकार तुम्हारे प्रति इन सात लोकों और सात पातालों का वर्णन मैंने तुमसे किया। यह ब्रह्मांड इतने ही विस्तार वाला है तथा वह कपित्य बीज के समान ऊपर, नीचे और नीचे और सभी ओर अण्ककटाह द्वारा घिरा है। हे मैत्रेयजी! यह ब्रह्मांड अपने से दश गुने जल से ढका है और वह जलावरण अग्नि से घिरा हुआ है। अग्नि वायु से और वायु आकाश से घिरा है। वह आकाश भूतों कारण रूप तामस भहंकार से और अहंकार महत्त्व से परिवेष्टित है। हे मैत्रेयजी! यह सातों उत्तरोत्तर एक दूसरे से दस गुने होते गए हैं। महत्तत्व को प्रधान ने आबृत्त दिया हुआ है। उस अनंत का न कभी अंत होता है और न उसकी कोई गणना ही है। क्योंकि, हे मुने! वह अनंत, असंख्येय, अपरिमेय और संपूर्ण विश्व का कारण तथा परा प्रकृति है। उसमें ऐसे-ऐसे सहस्रों, लाखों करोड़ों ब्रह्मांड है।
ईदुशानां तत्र कोटिकोशतानि चं।
दारुण्यन्नियथा तैल तिले द्वतत्पुमानपि।
प्रधानेश्वविस्थतो व्यापी चेतनात्मात्मत्वेदः।
प्रधानं च पुमांश्चैव सर्वभूतात्मभूतया।
विष्णशक्त्यामहाबुद्धे वृत्तौ संश्रयस्य च।
क्षोभकारणभूता च सर्गकाले महामते।
यथा सक्त जले वातोविभर्ति कर्णिकाले महामते।
शक्तिः साप्ति तथा विष्णाः प्रधानपुरुषात्मकर्मा।
यथा च पादपो मलस्कनधशाखादिसंयुक्तः।
आदिजीजात्प्रभवित बीजान्यत्यानि वै ततः।
प्रभन्ति ततस्तेभ्यः सम्भवन्त्यपरे द्रुमाः।
तेऽपि तल्लक्षणद्रव्यकारणनुगता मुने।
एवसव्याकृतात्पूर्व जाय ते महादादयः।
तेभ्यश्च पुत्रास्तेषां च पुत्राणामपे सुताः।
जैसे काष्ठ में अग्नि और तिल में भरा रहता है, वैसे ही अपने प्रकाश से ही प्रकाशित चेतनात्मा व्यापक पुरुष प्रधान में स्थित है। ये परस्पर मिले हुए प्रधान और पुरुष सब भूतों की स्वरूप भूता विष्णु-शक्ति से युक्त है। वही विष्णु शक्ति उन्हें पृथक करने वाली और वही मिलने वाली होती है। सर्ग का आरंभ होने के समय वही उनको क्षुब्ध करती है। जैसे ही विष्णु-शक्ति प्रधान पुरुषात्मक विश्व को धारण करती है। हे मुने! जैसे आदि बीज के ही द्वारा जड़, स्कंद, शाखा आदि से परिपूर्ण वृक्ष की उत्पत्ति होती है और उन बीजो से दूसरे और कारणों वाले होते हैं। वैसे ही प्रधान के द्वारा महत्तत्व से पंचभूत तक की भी उत्पत्ति होती है तथा उनसे ही देवता, असुर आदि उत्पन्न होते हैं और फिर उनके पुत्र अथवा पुत्रों के भी पुत्रादि होते हैं।