विष्णु पुराण

योजनपनां तु तरयाअस्तत्र चक्र प्रतिष्ठितम्।।

त्रिनाभिमिति पञ्चारं षण्नेमिन्यक्षयत्मके।

संवत्सरमये कृत्स्व कालचक्रः प्रतिष्ठितम्।।

हयाश्च सप्तच्छांसि तेषां नामनिसे शृणु।

गायत्री च वृहत्युष्णिग्जगती तिष्टुरेव च।।

अनुष्टव्यपक्तिरित्यक्ता छंदांसि हरयो रवेः।

चत्वरिंशत्सहस्राणि द्वितीयोऽक्षो विवस्वत।।

पंचान्यानि तु सार्धानि स्वन्दस्य महामते।

अक्षप्रमाणमुभयोः प्रणामं यद्यु गाद्धयेः।।

हृस्वीऽक्षस्तद्यु गार्द्धेन ध्रुवधारो रथस्य।

द्वितीऽक्षे तं तच्चक्रं संस्थितं मानसाचले।।

उसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन का है, जिसमें उसका पहिया लगा हुआ है। उस तीन नाभि पांच अरे और छह नेमि वाले संवत्सरात्मक अक्षय चक्र के संपूर्ण काल चक्र विद्यमान है। गायत्री, बृहती, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप सौर पंक्ति यह सात चंद्र ही उस रथ में जोड़े जाने वाले अश्व हैं।

इसके रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालसी हजार योजन लंबा है तथा दोनों धुरों के समान ही अनेक जुओं का परिणाम है। एक जुए के सहित के उस रथ का छोटा धुरा ध्रुव पर और दूसरा धुरे का पहिया मानोसोत्तर पर्वत पर स्थित है।

मानसोत्तरशैलस्य पर्वतो वासबी पुरी।

दक्षिणे तु यमस्तान्या प्रतीच्यां

वुरणस्य च।

उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि

मे शृणु।

वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा।

पुरी सुखा जलेशस्य सौमस्य च विभाबरी।

काष्ठां गतो दक्षिणतः क्षिप्तेपुरिव सर्पति।

मैत्रेय भगवान्मानुर्ज्योतिषां चक्रसंयुतः।

अहोरात्रव्यय स्थानकारणं भगवान्रविः।

देवयानः परः परः पंथा योगिनां क्लेशसंङक्षये।

दिवस्य रविर्मध्ये सर्वकालं व्यवस्थितः।

सर्वद्वीपेषु मैत्रेय निशार्द्धस्य च सम्मुखः।

उदयास्तमने चैव सर्वकालं तु सम्मुखे।

मानसोक्तर पर्वत के पूर्व में इंद्र को, दक्षिण में यमकी, पश्चिम में वरुण की तथा उत्तर में चंद्रमा की पुरी है, उनके नाम सुनो। इंद्र की पुरी का नाम वर्स्वोकसारा है, यम की पुरी को संयमनी कहते हैं। वरुण की पुरी सुखा और चं्रदमा की विभावरी है।  हे मैत्रेयजी! ज्योतिष चक्र के सहित भगवान सूर्य दक्षिण दिशा में प्रवष्टि होकर धनुष से छोड़े हुए तीर के समान तीव्र वेग से गमन करते हैं, वही भगवान सूर्य दिन और रात्रि का विभाग करते हैं तथा रोगादि क्लेशों का गमन होने पर वे ही मोक्ष भागी योगयों के लिए देवयान नामक सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। हे मैत्रेयजी! सभी द्वीपों से सदा मध्याह्नकाल में में तथा रात्रि में वे मध्य-आकाश में सामने की ओर स्थित रहते हैं। वैसे ही उदय और अस्त भी परस्पर सामने ही होते हैं।

विदिशासु त्वशेषाषु तथा ब्रह्मन दिशासु च।

यैर्थत्र दृश्यते भास्वांस तेषामुदयः स्मृतः।