सुख का अनुभव

बाबा हरदेव

‘सुख’ मन की वह अवस्था है, जहां ये शरीर को पदार्थों से तृप्त, प्रसन्न तथा संतुष्ट हो पाता है। शरीर की सभी जरूरतें पूरी हो गई, मनुष्य संपन्नता में स्थित हो गया, मानो सुखी हो गया। दुःख इसी का विपरीत भाव है। शरीर को जब पदार्थों का अभाव घेर लेता है, तो मन विचलित हो उठता है शरीर को भी पीड़ा होती है, ये असंतुष्ट होता है। इसी का नाम ‘दुःख’ है। यह एक अटल सच्चाई है कि जब भी मनुष्य को ‘सुख’ का अनुभव होता है, तब इसे ऐसा अनुभव नहीं होता कि मनुष्य ‘सुखी’ हो गया है,बल्कि ऐसा अनुभव होता है कि मनुष्य ‘कुछ’ है, जिस पर सुख आया है। इस सूरत में ‘सुख’ एक घटना होती है। बाहर की धारा होती है, स्वभाव नहीं, क्योंकि जो स्वभाव है, उसे हम खो नहीं सकते, जबकि सुख तो आता है और चला जाता है, सुख खो जाता है। मानो आज सुबह जो सुख आया था तो सांझ तक ‘दुःख’ आता है, ये दोनों (सुख और दुःख) मनुष्य पर घटित होते रहते हैं और विदा होते रहते हैं। ये दोनों घटनाएं पदार्थ से जुड़ी हैं। संपूर्ण अवतार अवतार बाणी का फरमान हैः

दुःख  सुख दे इस चक्कर अंदर हर कोई चकरांदा ए

अब घटना का अर्थ है विजातीय। ये हमसे बाहर से होती है, बाहर ही होती है हमारे असल अस्तित्व के बाहर ही घटती है। सुख एक परछाई है हम कभी उससे एकात्म नहीं हो सकते, चाहे हम कितना ही समझे कि हम इससे एकात्म है। मानो आनंद जब केवल एक घटना होती है, तब हम इसे ‘सुख’ कहते हैं और ऐसा सुख सकारण होता है बाहर से आता है। ऐसे सुख के लिए मनुष्य को बाहर पर निर्भर रहना पड़ता है मोहताज रहना पड़ता है। ये आसानी से छीना जा सकता है, क्योंकि कारण छीना जा सकता हैः

सुख दुनियां ऐ परछावें ने जेकर परीतां पाएंगा

ढल गए परछावें जिस दम रोयेंगा कुरलाएंगा

अतः जो चीज कारण आबद्ध है, वी छीनी जा सकती है। उदाहरण के तौर पर धन आज हमारे पास है, तो हम बहुत सुख महसूस कर रहे हैं और अगर कल को यही धन हमसे छिन जाता है, तो हमारा सुख भी खो जाता है। मानो कारण से पैदा हुआ सुख क्षण-भंगुर होता है। जहां-जहां कारण है, वहां-वहां सुख छिन जाएगा ऐसा मानना होगा। महात्मा फरमाते हैं कि जब तक किसी भी कारण से किसी भी संबंध से हमें कोई खुशी और सुख सुविधा मिलती रहती है, तब तक हम सही मायनों में प्रसन्नता को उपलब्ध नहीं हो सकते। मानो सुख का भोगी आशा की कोई संतान नहीं है। एक सूफीकवि भी फरमान है।

अपने सीने से लगाए हुए उम्मीद की लाश

मुद्दते जीस्त को नाशाद किया है मैंने

अर्थात एक आशा रूपी लाश को छाती से लगाए हुए न मालूम मैं कितने काल जिंदगी को व्यर्थ खिन्न करता रहा। अब सुख जब अकारण होता है, सुख जब स्वभाव होता है तब आध्यात्मिक जगत में इसे आनंद के नाम से संबोधित किया गया है। मानो आनंद का ये अर्थ हुआ कि आनंद कहीं बाहर से नहीं आता। आनंद की एक अद्भुत खूबी ये है कि आनंद अपदार्थवाद है। आनंद भीतर से बाहर जाता है। सुख और आनंद में गुणात्मक अंतर है। आनंद का स्रोत ब्रह्म है। जहां विवाद नहीं कला नहीं, संघर्ष नहीं , वहीं आनंद के फूल खिलते हैं। आनंद अकेला शब्द है जिसका कोई उलटा शब्द नहीं है। सुख का उलटा दुख है, शांति का उलटा अशांति है, अंधेरे का उलटा उजाला है, जीवन का मृत्यु है, परंतु आनंद की हालत में धारा पूरी बदल जाती है, धारा उलट जाती है।