सोशल मीडिया में नालेज पैक की चार्जिंग

जब हम खुश नहीं होते, तभी खुशी के आकार में समय की प्रताड़ना समझ पाते हैं। वैसे समय को सोशल बना देना इससे पहले नामुमकिन था, लेकिन मुमकिन बाजार में अब समय की क्या कीमत। हर व्यक्ति अपनी आयु के हर पड़ाव में खुद की बोली लगाकर समय को छलता है, फिर भी हर दिन की मुलाकात में कहने को शब्द नहीं। ये शब्द उस चरागाह में मिलेंगे, जिसे सोशल मीडिया कहा जाता है। एक विशेष योग के तहत मौन क्रांतियों का उद्घोष उस सन्नाटे में सक्रिय है, जिसे हम ट्विटर या फेसबुक का तकिया लगाकर समझ पाते हैं।

सोशल मीडिया हमारे घर की दीवारों के बीच और संस्कारों से ऊपर जो कहता है, सुनता नहीं, फिर भी अज्ञानी नहीं। एक बार हाथ आजमा के देखिए या किसी जानकार पर एक-दो छींटे फेंक के देखिए, मालूम हो जाएगा आपकी औकात है क्या। हमने तो बस जिक्र किया था कि देश पुनः ‘सोने की चिडि़या’ का घोंसला बना रहा है, परंतु उधर से तो खुद चिडि़या ही बतियाने लगी। बिना फुदके चिडि़या का सोशल मीडिया होना, अब न हमें सोने देता है और न ‘सोना’ होेने का अर्थ बताता है।

हम मानते हैं, स्वीकार करते हैं और इसके अलावा कर भी क्या सकते। चिडि़या ने बार-बार कहा कि जो नहीं कहा, उसे भी स्वीकार करो, इसलिए हम राजनीति में उलझते नहीं और सरकारों से सरोकारों की बात पूछते नहीं। अपनी गली के मशहूर चाट-पापड़ी वाले मियां की जुबान जिस तरह अपना माल बेचने में माहिर है, उसी तरह हमारे मोबाइल पर न जाने कितनी ‘चाट’ रोज बिखरती है।

आपको यकीन न हो तो अपनी-अपनी फ्रेंड लिस्ट देख लीजिए, हालांकि यह गौर न करें कि यहां दोस्ती सिर्फ ‘बनाने’ की है। हमारी भी एक शक्ल है, जो हमें ज्ञानी बना देती है। कल उन्होंने कहा कि देश की ‘जीडीपी’ कमाल कर रही है, हम केवल माने ही नहीं, बल्कि पिछले सत्तर साल के लिए नाराजगी जाहिर करते हुए यहां तक बता दिया कि भाई अतीत में हमें बिना ‘जीडीपी’ ही धकेल कर फंसा दिया। हमें तो लगा कि पहले या तो यह बला होती नहीं थी या उनकी ‘जीडीपी’ नकली रही होगी। मान गई हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट भी और देखते ही देखते कुछ और दोस्त बन गए। हमारा अपना हूं हां क्लब हर दिन ज्ञान का बैंड बजाता है। हमें मालूम है कि देश ‘सोने’ का है। भारत हमेशा महान बनने की कोशिश में रहा है और अब तो सिर्फ भविष्य में रहता है। हमारे वक्त का यह भारत ही सुबह से शाम तक हमारे साथ रहता है, इसलिए जो हम कहें-वही भारत है। हम चलें, तो भारत चलता है, नहीं तो हम विपक्ष को यानी अपने विरोध को कहां टिकने देंगे। यहां शुरुआत हमारी, पैगाम हमारे और अंजाम भी हमारा। हम सोशल मीडिया के जन्मदाता तो नहीं, लेकिन इससे ज्यादा सोशल नहीं हो सकते।

लिहाजा हर कतरब्यौंत है हमारे पास और प्रशंसा ऐसी कि बिना कहे भी सुनना चाहते हैं, इसलिए जवानी के फोटो से फेसबुक को अपना समय समझा के चलते हैं। दो चार मंत्र तो अपने लेखक व पत्रकार मित्रों ने भी समझा दिए कि किस तरह बिना प्रकाशित अर्थ का ज्ञान चमकाया जा सकता है। अब तो हम हर बात में  टांग अड़ाते हैं और सुबह होने से पहले मुर्गा बन के बांग सुनाते हैं। इससे पहले कि कोई और ‘समय’ पर बात करे, हम समय को समतल बनाकर लिटा देते हैं, ताकि उनका जिक्र भी मलाल का हुक्म बन जाए। कहने को हम लेखक हैं, लेकिन अपने जन्मदिन और शादी की सालगिरह को हर गिरह व जिरह में मापते हैं।

सारे त्योहारों पर हमारी टिप्पणियां, लेकिन यह अदब नहीं है जमाने के साथ मनाएं कैसे। सो लिखने के बजाय मोबाइल के कैमरे से रस्साकशी करते हैं। वाकई ऐसे ‘नालेज पैक’ का जवाब नहीं जो सोशल मीडिया में चार्ज होता रहता है। खास तौर पर मीडिया जगत के लिए अब यहीं इज्जत बची है। पिछले कुछ समय से मीडिया बकरों की हलाली का जिक्र करते हुए एक जनाब मिलकर शर्तिया हो गए।

हालांकि मैंने कहा कि ‘भरतिया’ अब मीडिया के काबिल नहीं, तो वह शर्तिया कैसे रहेंगे, लेकिन जनाब ढीठ थे और इसी लय में भाजपा को हराते रहे। बीच-बीच में हम भी भटके थे, लेकिन चुनाव परिणाम आए तो सारी कलई खुल गई। अब यही दर्द दवा बनी तो सोशल मीडिया पर हाजिरी लगा रहे हैं, लेकिन यहां भी अफसोस यह कि कांग्रेस अब किसी बहस में मुर्गा नहीं बनती और अगर भाजपा को कुछ कह बैठे, तो झूठ ही निकलेगा। 

ऐसे में नई फिल्म भारत पर ही बहस शुरू कर दी, लेकिन भारत सहमत नहीं हुआ। उसका अपना मंतव्य है – अपना वक्त है। अब जबकि हमारी बहस शुरू हुई तो भारत भी कहीं अपने पर बन रही फिल्मों में खुद को ढूंढने निकल गया।           

                                                                       -निर्मल असो