हड़ताल के खलनायक

बंगाल में डाक्टरों की हड़ताल खत्म भी हो सकती है, लेकिन यह आलेख लिखे जाने तक हड़ताल जारी थी। गौरतलब यह भी है कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने भी सोमवार को देशव्यापी हड़ताल का अपना आह्वान वापस नहीं लिया है। हालांकि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कुछ नरम पड़ी हैं और मांगें मानने का आश्वासन भी दिया है, लेकिन न तो उन्होंने अपने तानाशाह रवैये पर माफी मांगी है और न ही डाक्टरों की सुरक्षा का कोई ठोस बंदोबस्त किया है। बेशक अन्य राज्यों में भी डाक्टरों ने छुटपुट हड़तालें की हैं, लेकिन राष्ट्रीय व्यापकता पहले कभी नहीं देखी गई। यह औसत भी चिंतनीय है कि देश में औसतन 75 फीसदी डाक्टरों को हिंसा और हमलों का शिकार होना पड़ता रहा है। इस हैवानियत को कौन रोकेगा? एक तरफ डाक्टरों को ‘भगवान का प्रतिरूप’ माना जाता रहा है, क्योंकि वे नई जिंदगी भी देते हैं और हमारे जीवन की रक्षा भी करते हैं, लेकिन दूसरी तरफ उन्हीं पर जानलेवा हमले। यह फितरत समझ नहीं आने वाली है। बहरहाल इस पूरे प्रकरण में बड़ी गलती बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की रही। गलती ही नहीं, उनका अमानवीय, बर्बर, हिटलराना व्यवहार भी सामने आया। नतीजतन जूनियर डाक्टर अकेले में मुख्यमंत्री से मुलाकात करने को आशंकित रहे। डाक्टरों में भय बना रहा कि मुख्यमंत्री ने अकेले में डाक्टरों को धमकाया-डराया था। छोटी गलती डाक्टरों ने भी की है। उन्हें आम कर्मचारियों की तरह हड़ताल को लंबा नहीं खींचना चाहिए था। वे प्रतीकात्मक विरोध कर सकते थे। बेशक डाक्टरों पर कातिलाना हमला किया गया, लेकिन डाक्टरों को तो ‘मानवीयता का रूप’ माना जाता रहा है। हड़ताल के कारण अकेली राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ही एक दिन में औसतन 20,000 मरीज प्रभावित हुए हैं। कोई कैंसर का मरीज है, तो एक महिला की कोख में सात माह के बच्चे की मौत हो गई। आपरेशन के लिए वह अस्पताल-दर-अस्पताल धक्के खाती रही। न जाने उसकी स्थिति क्या रही होगी? कोई बुजुर्ग या विकलांग अस्पताल की चौखट पर हांफ रहा था, तो कोई दर्द से कराह रहा था। डाक्टरों की हड़ताल से बड़ा सरोकार मानवीयता का है और वह इलाज करके डाक्टर ही सुनिश्चित कर सकते हैं। बेशक गुंडों की एक भीड़ ने कोलकाता में डाक्टर पर हमला करके न केवल उनका सिर फाड़ दिया, बल्कि एक प्रशिक्षित डाक्टर की पेशेवर क्षमता छीन लेने के आसार पैदा कर दिए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन के मुताबिक एम्स के एक डाक्टर की टे्रनिंग पर 8-10 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं। यही देश का बौद्धिक निवेश है। डाक्टरों की पूरी पढ़ाई पर लाखों रुपए अतिरिक्त खर्च किए जाते हैं। क्या ऐसी संपदा को एक हिंसा के जरिए नष्ट कर देना चाहिए? डाक्टरों पर हमलों के अलावा, बंगाल में सियासी हिंसा भी चरम पर है। बीते वर्ष 2018 में हिंसा की कुल 1035 घटनाएं हुईं, जबकि 2019 में अभी तक 700 से ज्यादा हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं। यह लोकतंत्र है अथवा कोई जंगलराज। चिकित्सा भी एक प्रोटोकोल है और औसतन डाक्टर के लिए मरीज की जाति, धर्म, रंग, जमात बेमानी होते हैं। उसके बावजूद ममता बनर्जी ने इस प्रकरण को भी हिंदू-मुसलमान रंग देने की कोशिश की है। अस्पताल में इलाज के दौरान मरने वाला मरीज 85 साल की उम्र का था और उसे लगातार दिल के दो दौरे पड़ चुके थे। संयोग से वह ‘इमाम’ था और डाक्टर हिंदू बंगाली था। किसी भी मरीज की आकस्मिक मौत का दंड डाक्टर को नहीं दिया जा सकता। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस प्रकरण को शांत करने की बजाय उकसावा दिया और आज हालात देश के सामने हैं। बेशक डाक्टर अपनी हड़ताल वापस ले लें, उन्हें वापस ले भी लेनी चाहिए, क्योंकि यही राष्ट्रहित और मरीजहित में है, लेकिन सुरक्षा का सवाल बरकरार रहेगा। खौफ और भय के साथ डाक्टरों को इलाज करना पड़ेगा। क्या ऐसी मनोस्थिति एक डाक्टर के लिए उचित होगी? देश के 19 राज्यों में ऐसे कानून मौजूद हैं, जो डाक्टरों पर किए गए हमलों या अन्य हिंसक व्यवहार की स्थितियों को संबोधित करते हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन ढीला-ढाला रहा है, लिहाजा हड़ताल के दौरान डाक्टरों का यह आग्रह सटीक लगता है कि इस संदर्भ में अब केंद्रीय कानून बनाया जाए। फिलहाल स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने तो कोई आश्वासन नहीं दिया है।