गीता रहस्य

स्वामी रामस्वरूप

भक्तया का अर्थ है भक्ति। इस प्रकार ईश्वर की विज्ञान, कर्म एवं उपासना के अभ्यास द्वारा सेवा करना अर्थात साधक इस प्रकार जब वेदानुकूल साधना करता है तो श्रीकृष्ण महाराज कह रहे हैं कि वह साधक ही सच्ची उपासना भक्ति करता है। इन सबका अभिप्राय समझाते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज कह रहे हैं कि ऐसा साधक ही ‘माम भक्तयाः नित्ययुक्ताः उपासने’ अर्थात मेरी भक्ति द्वारा वेदों में कही अष्टांग योग विद्या में निरंतर लगे…

गतांक से आगे…

जो निधि, सिद्धि, ब्रह्म अनुभूति, ब्रह्म लीनता और ब्रह्म के समान स्वरूप श्री कृष्ण महाराज का था,उसी स्थिति में वह वेदानुसार निराकार ब्रह्म का ज्ञान श्लोक 9/14 में भी और संपूर्ण गीता में दे रहे  हैं। वेदानुसार ही ‘नित्ययुक्तः’ का अर्थ है कि नित्य योगाभ्यास अर्थात अष्टांग योग की साधना करते हुए योग साधना बिना आचार्य द्वारा वेदमंत्र सुने और सुने हुए ज्ञान को याद करके आचरण में लाए बिना नहीं होती। इस विषय में ऋग्वेद मंत्र 7/67/8 में स्पष्ट श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन रूप अभ्यास का वर्णन किया गया है। मंत्र में कहा है हे मनुष्यों ! एक योग में ज्ञानेंद्रियों के सात प्रवाह ही ईश्वर के मार्ग को प्राप्त कराते हैं व परमात्मा में युक्त, दृढ़ता वाले तथा कभी न थकने वाले मार्ग को प्राप्त करते हैं। वह सात प्रवाह हैं, पांच ज्ञानेंद्रियां, मन तथा बुद्धि जिन पर वेदाध्ययन एवं योगाभ्यास द्वारा संयम करके साधक ईश्वर को प्राप्त करता है। आचार्य से वैदिक ज्ञान सुनता है, जिसे श्रवण कहते हैं। श्रवण के पश्चात एकांत में मनन करता है और मनन के पश्चात जब सिद्ध हो जाता है तब उस ज्ञान को आचरण में लाता है जिसे निदिध्यासन कहते हैं। यजुर्वेद मंत्र 1/5 के अनुसार दृढ़ताः दृढ़व्रताः का अर्थ है वेदाध्ययन द्वारा ईश्वर के नियमों को जानकर विज्ञान कर्म एवं उपासना भक्ति पर दृढ़ रहना और उसके विरुद्ध कभी न जाना। ‘सततम का अर्थ है निरकार और ‘यतंतः का अर्थ है वेदों से प्राप्त ज्ञान को आचरण में लाने के लिए निरंतर विज्ञान शुभ कर्म एवं उपासना का अभ्यास करते रहना। भक्तया का अर्थ है भक्ति। इस प्रकार ईश्वर की विज्ञान, कर्म एवं उपासना के अभ्यास द्वारा सेवा करना अर्थात साधक इस प्रकार जब वेदानुकूल साधना करता है तो श्रीकृष्ण महाराज कह रहे हैं कि वह साधक ही सच्ची उपासना भक्ति करता है। इन सबका अभिप्राय समझाते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज कह रहे हैं कि ऐसा साधक ही ‘माम भक्तयाः नित्ययुक्ताः उपासने’ अर्थात मेरी भक्ति द्वारा वेदों में कही अष्टांग योग विद्या में निरंतर लगे। मेरी अर्थात निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं।