गुणवत्तायुक्त शिक्षा की दरकार

संजय शर्मा

लेखक, शिमला से हैं

 

हमारे बहुतकनीकी व औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में भी वर्षों से पुराने ट्रेड/ व्यवसाय ही पढ़ाए जा रहे हैं तथा प्रायोगिक ‘प्रशिक्षण’ पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। फलस्वरूप जब विद्यार्थी इन संस्थानों से पढ़कर बाहर आते हैं और किसी उद्यम में नौकरी के लिए आवेदन करते हैं, तो अपने पढ़े हुए ट्रेड के प्रैक्टिकल प्रदर्शन के समय वे अकसर पिछड़ जाते हैं और रोजगार का अवसर खो देते हैं। आवश्यकता है कि  शिक्षण संस्थाओं में दी जाने वाली शिक्षा गुणवत्तायुक्त हो, जिससे हुनर को बढ़ावा मिल सके व प्रदेश में कुशल कारीगरों की जो मांग है, उसकी आपूर्ति बाहर के प्रदेशों से न होकर यहीं से पूरी हो…

कहा जाता है कि यदि किसी देश या राज्य के बारे में जानना हो, तो वहां की शिक्षा व्यवस्था का ढांचा देखिए। दिनांक 02 फरवरी, 1835 को ‘लॉर्ड मैकाले’ ने ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए कहा था ‘कि मैंने पूरे भारत का एक छोर से दूसरी छोर तक भ्रमण किया है, परंतु मुझे कोई भी भिखारी नहीं मिला। यहां के लोग खुशहाल व नैतिक मूल्यों वाले है। मुझे नहीं लगता कि हम इस देश की रीढ़ कभी तोड़ पाएंगे। इसका कारण है यहां की आध्यात्मिक व सांस्कृतिक विरासत। यदि हमें इस देश को अपने अधीन करना है, तो यहां की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था पर चोट करनी पड़ेगी, जिसके फलस्वरूप लोग यह सोचने पर मजबूर हो जाएं कि जो बाहरी है और विदेशी है, वह हमसे बेहतर है। जिससे वे अपने आत्म स्वाभिमान को खो देंगे और हम उन्हें अपने अधीन कर सकेंगे।’ लार्ड मैकाले का यह उद्बोधन हमारी उस उच्च पुरातन शिक्षा व्यवस्था के बारे में है, जिसने हमारे देश को विश्व गुरु बनाया था।

मैकाले का यह कथन इस बात को भी चरितार्थ करता है कि शिक्षा व्यवस्था ही किसी देश के लोगों को हर प्रकार से सुदृढ़ करती है व वहां की धार्मिक व सांस्कृतिक परंपराओं की पोषक भी है। स्वतंत्रता के पश्चात हमारे संविधान में राज्य को एक कल्याणकारी राज्य का दर्जा दिया गया, जिसका कार्य अपने लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ जल, सुविधाजनक व सस्ता परिवहन इत्यादि उपलब्ध करवाना था। आज भारत की गिनती उन देशों में होती है, जहां के नागरिक सबसे अधिक टैक्स देते हैं। यहां बैंकों से मिलने वाला ऋण और देशों के मुकाबले अधिक ब्याज दर पर प्राप्त होता है। नागरिक टैक्स इसलिए देते हैं, ताकि राज्य की ओर से दी जाने वाली सभी सुविधाएं गुणवत्तायुक्त हों, परंतु वास्तव में धरातल पर क्या स्थिति है, यह किसी से छिपी नहीं है। चाणक्य ने कहा था कि ‘अव्यवस्थाओं का विरोध इसलिए नहीं होता, क्योंकि आवाज उठाने की गरीब की हिम्मत नहीं होती, मध्यम को फुर्सत नहीं व अमीर को जरूरत नहीं’। साधन संपन्न व्यक्तियों ने अपनी सुविधा के लिए हर उस व्यवस्था का निजीकरण कर दिया है, जो कि कल्याणकारी राज्य के रूप में देने का सरकार का दायित्व बनता था। घर में बिजली आपूर्ति निर्बाध होती रहे, इसके लिए उन्होंने ‘विशालकाय साइलेंट जनरेटर’ लगा दिए। जलापूर्ति स्वच्छ नहीं है, तो फिल्टर लगवा दिए, सुरक्षा की समस्या है, तो निजी सुरक्षा एजेंसियों का सहारा लिया। अच्छी शिक्षा देने के लिए उपयुक्त ढांचा तैयार करना सरकारी स्कूलों का कार्य था, परंतु वर्तमान में अधिकतर सरकारी स्कूलों की हालत के दृष्टिगत महंगे वातानुकूलित पब्लिक स्कूल स्थापित हो गए। हिमाचल में भी प्रतिवर्ष राजनीतिक विवशताओं के चलते नए स्कूलों की स्थापना की घोषणा की जाती है, बिना इस बात का आकलन किए कि वहां इसकी आवश्यकता है कि नहीं। अभी हाल ही में लगभग ऐसे 200 स्कूलों को बंद करने का सरकार ने निर्णय लिया है, जहां छात्रों की उपस्थिति नगण्य है। प्रदेश के कबायली जिलों लाहौल स्पीति, किन्नौर व प्रदेश के दूर-दराज के क्षेत्रों में ऐसे बहुत से विद्यालय हैं, जहां छात्रों व अध्यापकों की संख्या लगभग बराबर है व विद्यालयों के भवन तैयार कर दिए गए हैं। ऐसी अवस्था में वहां दी जाने वाली शिक्षा का क्या स्तर व गुणवत्ता होगी, यह सोचने का विषय है। ट्राइबल जिलों के अधिकतर निवासी वहां पैदा होने वाली नकदी फसलों, वन संपदा व फल उत्पादन के कारण साधन संपन्न हैं, परंतु वे अपने बच्चों को वहां स्थापित स्कूलों व महाविद्यालयों में नहीं पढ़ाना चाहते। उनके बच्चे शिमला, हमीरपुर, दिल्ली जैसी जगहों पर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं तथा इन जिलों में कई जगहों पर बने विद्यालय व महाविद्यालयों के भवन छात्रों की बहुत कम उपस्थिति के कारण सूने पड़े हैं।

जहां तक इन स्थानों पर दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता का सवाल है, वह भी एक विचारणीय विषय है। सर्वेक्षणों में भी यह बात जाहिर हुई है कि दसवीं पास विद्यार्थी भी एक साधारण प्रार्थना पत्र/ आवेदन लिखते समय उसमें बहुत अशुद्धियां करता है। अंग्रेजी, विज्ञान व गणित संबंधी विषयों में तो स्थिति और चिंताजनक है। फलस्वरूप जब भी देश व प्रादेशिक स्तर पर आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में ऐसे विद्यार्थी भाग लेते हैं, तो अधिकतर फिसड्डी साबित होते हैं। दिए जाने वाले आरक्षण के बल पर यदि उनका चयन होता भी है, तो ताउम्र उन्हें कमतरी का एहसास होता रहता है। हमारे बहुतकनीकी व औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में भी वर्षों से पुराने ट्रेड/ व्यवसाय ही पढ़ाए जा रहे हैं तथा प्रायोगिक ‘प्रशिक्षण’ पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता।

फलस्वरूप जब विद्यार्थी इन संस्थानों से पढ़कर बाहर आते हैं और किसी उद्यम में नौकरी के लिए आवेदन करते हैं, तो अपने पढ़े हुए ट्रेड के प्रैक्टिकल प्रदर्शन के समय वे अकसर पिछड़ जाते हैं और रोजगार का अवसर खो देते हैं। आवश्यकता है कि  शिक्षण संस्थाओं में दी जाने वाली शिक्षा गुणवत्तायुक्त हो, जिससे हुनर को बढ़ावा मिल सके व प्रदेश में कुशल कारीगरों की जो मांग है, उसकी आपूर्ति बाहर के प्रदेशों से न होकर यहीं से पूरी हो। हमारी शिक्षा व्यवस्था का केंद्र बिंदु प्राचीन प्रणाली के आधार पर ‘3एच’ (हैड, हार्ट व हैंड) का विकास होना चाहिए, जिससे व्यक्ति बौद्धिक, भावनात्मक व तकनीकी रूप से समृद्ध हो सके।