नए क्षितिज पर विश्वविद्यालय

राष्ट्रीय रैंकिंग में हिमाचल के कृषि तथा बागबानी विश्वविद्यालयों में आया निखार स्पष्ट है और यह राज्य की शिक्षा को प्रासंगिक-प्रतिष्ठित करता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पैमानों में खरा साबित होने की वजह उस माहौल में मिलती है, जहां ये दोनों विश्वविद्यालय छात्रों और अध्यापकों को अनुशासित रखते हैं। यहां अध्ययन-अध्यापन की विरासत में भविष्य की तलाशी जारी है तो छात्र जीवन की उमंगों में विश्वसनीयता का प्रसार भी देखा गया। यही वजह है कि जब हिमाचल के कई कालेज छात्र समुदाय को उच्च शिक्षा की श्रेष्ठता प्रदान नहीं करवा पा रहे हैं, तो कृषि एवं बागबानी के माध्यम से प्रदेश की मैरिट दिखाई देती है। इस साल भी श्रेष्ठ संस्थानों के बाहर अगर हिमाचल के टॉपर छात्रों की कतार लगी तो इन दोनों विश्वविद्यालयों में आए आवेदनों की संख्या से यह स्पष्ट होता है। यह दीगर है कि पिछले दस सालों से हिमाचल के ही केंद्रीय विश्वविद्यालय की हैसियत में ऐसा दर्जा नहीं आया और कुछ सीटें इस साल भी खाली रह गईं। दूसरी ओर शिमला विश्वविद्यालय ने अपनी युवा ऊर्जा गंवा दी, नतीजतन पिछला दशक छात्रों की ऊहापोह में परिसर के नाम की चमक को बरकरार नहीं रख सका। शिक्षा को हमेशा मैरिट से नहीं तोला जा सकता, फिर भी हिमाचल के मानसिक धरातल पर सुशिक्षित प्रदेश होने के बावजूद कमजोर आकलन हो रहा है, तो तमाम संस्थानों की व्याख्या होनी चाहिए। शिक्षण संस्थानों के माहौल से जीवन और व्यक्तित्व की धाराएं ही अगर कुंठित होकर निकलेंगी, तो सामाजिक आवरण के छेद और सियासी भेद ही दिखाई देंगे। इस तरह यह श्रेय पालमपुर-नौणी विश्वविद्यालयों को जाएगा कि वहां छात्र राजनीति के लिए न वक्त और न ही वजह छोड़ी जाती है। प्रशासनिक सेवाओं या वैज्ञानिक उपलब्धियों तक पहुंचने का जरिया अगर ऐसे परिसरों की रौनक का सबूत है, तो इसके आयाम बढ़ने चाहिएं। बेशक हम कृषि-बागबानी क्षेत्र में दोनों विश्वविद्यालयों का अलग तरह से मूल्यांकन कर सकते हैं और यह चुनौती सदा रहेगी कि व्यावसायिक शिक्षा, खेत तक कितना असर करती है। यह भी देखा जाएगा कि दोनों विश्वविद्यालयों से निकले छात्रों व अनुसंधान से हिमाचल की ग्रामीण आर्थिकी किस तरह भविष्य की आशाओं को प्रकट कर रही है। कहना न होगा कि पर्वतीय लिहाज से शोध, नवाचार तथा व्यावसायिक तरक्की के लक्ष्य ऐसे संस्थानों की वास्तविक पहचान हैं। भले ही रैंकिंग से उभरे क्षितिज पर कृषि-बागबानी विश्वविद्यालय चमक रहे हैं, लेकिन इस एहसास का इंतजार खेतीबाड़ी व बागबानी को भी रहेगा। किसान-बागबान की रैंकिंग भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से भी कठिन है, अतः शिक्षण संस्थानों को इन वर्गों को संतुष्ट करने की चुनौती है। मौसम के बदलते अंदाज और जलवायु परिवर्तन की खटास के बीच, हिमाचली किसान की पैदावार किस तरह नए प्रयोगों-विकल्पों की सफलता में दर्ज हो, इस पर परिश्रम की जरूरत है। वैश्विक दृष्टि में कृषि उपज के मायने और फलोत्पादन की रफ्तार बढ़ी है, अतः दोनों विश्वविद्यालयों की प्रमाणिकता उस मोल-तोल में सदा रहेगी जो किसान-बागबान के उत्पादन को उसकी आमदनी का सशक्त माध्यम बना दे। हिमाचली किसान ने जिस जमीन को बंजर बनने के लिए छोड़ दिया है या जहां आयातित सेब के आगे प्रदेश का बागीचा सहम गया है, वहां से वैज्ञानिक सोच का दायरा विस्तृत और संघर्षशील होता है। कृषि-बागबानी के नए विकल्पों में केनफ जैसे उत्पादों के लिए हिमाचल अगर मेहनत करे तो आर्थिकी का एक नया संसार हमारी धरती पर उग सकता है। हिमाचल की कई निजी नर्सरियां या निजी तौर पर साधारण किसान-बागबानों के प्रयोग की प्रयोगशालाएं अगर दोनों विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर चमत्कार पैदा करें, तो कई धरती पुत्रों का योगदान सुर्खरू होगा। इसी तरह कृषि तथा बागबानी विश्वविद्यालयों के बीच जो साझापन है, उसकी ताकत का इजहार करने की जरूरत है। दोनों विश्वविद्यालयों को ग्रामीण आर्थिकी के लिए एक-दूसरे के नजदीक आकर नए संकल्प लेने होंगे।