नदियों का मैला होता दामन

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक, बिलासपुर से हैं

इन नदियों व खड्डों के किनारों पर कई होटलों के कचरे तथा औद्योगिक इकाइयों व जहर उगल रही फैक्टरियों से उत्सर्जित रासायनिक अपशिष्टों से नदी-नालों के पानी की स्वच्छता सर्वाधिक प्रभावित हुई है। औद्योगिक क्षेत्रों के नजदीक बह रही नदियों के विषाक्त पानी से कई जलचर जीवों के साथ पशुओं के मरने के समाचार अकसर प्रकाशित होते रहते हैं, जबकि औद्योगिक क्षेत्रों में मौजूद उद्योगों के लिए कड़े-कायदे व कानूनों का मसौदा लागू है। 26 मार्च, 1974 से देश में ‘जल प्रदूषण अधिनियम’ लागू है, इसके साथ ‘जल प्रदूषण एक्ट-1977’ भी मौजूद है…

हिमाचल के पहाड़ों में कुदरत ने जो अनमोल संपदा के अपार भंडारों की सौगात दी है, उसमें पानी के भंडार प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि राज्य में बहने वाली बड़ी नदियों का जिक्र हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी हुआ है। राज्य में इन नदियों पर चल रही कई बिजली परियोजनाओं के कारण प्रदेश को बिजली राज्य के रूप में भी पहचान मिली है, लेकिन इतनी बड़ी जल संपदा की समृद्धि वाला प्रदेश खुद जल संकट के मुहाने पर खड़ा रहता है। राज्य में पेयजल की कमी परेशानी का सबब बनी है। पेयजल आपूर्ति पर्याप्त न होने से यह समस्या प्रतिदिन गहराती जा रही है। पुरातन से हमारे ऋषियों ने पानी का मोल व महत्त्व समझकर धार्मिक ग्रंथों में नदियों की महिमा का विस्तारपूर्वक उल्लेख करके कई पन्ने भर दिए थे, लेकिन ऋषियों द्वारा वर्णित इनकी वास्तविकता को जानने में हम नाकाम रहे। भारतीय संस्कृति में नदियों को देवी स्वरूप माना गया है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य यह है कि देवी व मां का दर्जा सिर्फ ग्रंथों तक ही सीमित रह गया है। अब इन जीवनदायिनी नदियों का दामन बेतहाशा प्रदूषण के सैलाब से मैला हो चुका है। सन् 1980 के दशक में देश की 22 नदियां प्रदूषित पाई गई थीं, मगर वर्तमान में यह संख्या तीन सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है।

अब इन प्रदूषित नदियों की सूची में देवभूमि में बह रही सात नदियों का नाम भी शामिल हो चुका है। हालांकि यहां की अन्य नदियां, खड्डें या दूसरे जलाशय भी प्रदूषण की मार से मुक्त नहीं हैं, लेकिन सात नदियों के पानी में बीओडी (बायोलोजिकल ऑक्सीजन डिमांड) प्रदूषण की मात्रा तय मानकों से कहीं अधिक है। जबकि हिमाचल में बहने वाली नदियों की विशेषता देश की बाकी नदियों से अलग है। गर्मी के प्रकोप से जब देश की नदियों के पानी में गिरावट दर्ज होती है, उस ग्रीष्मकालीन मौसम में हिमनदों के पानी से प्रदेश की नदियों का जलस्तर बढ़ने लगता है।

नदियों के किनारों से रेत खनन, खड्डों के बीच  बजरी खनन तथा पत्थरों के अवैध धंधे के कारण ये जीवनदायिनी जलस्रोत अनुचित दोहन का शिकार हो चुके हैं। राज्य के कई नाले व खड्डें खनन तथा प्रदूषण की मार से अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं तथा पानी के लिए बरसात के मौसम में भारी वर्षा का इंतजार करते हैं। अवैध खनन, औद्योगिक कचरे का प्रदूषण तथा मलबा डंपिंग से नदी, नालों व खड्डों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ रहा है, जिससे इनके पानी का प्रवाह क्षेत्र अवरुद्ध होने से इनके बहाव मार्ग की दिशा भी बदल रही है। नतीजतन प्रलयकारी बाढ़ व भू-स्खलन जैसी आपदाओं में इजाफा हुआ है, जो कि प्राकृतिक घटनाएं नहीं, बल्कि मशीनीकरण के विकास तथा हमारी स्वार्थी चेतना का नतीजा है। राज्य में नदी-नालों व खड्डों में बढ़ते प्रदूषण तथा अवैध खनन की समस्याओं से परेशान बुद्धिजीवी वर्ग तथा स्थानीय क्षेत्रों के लोग शासन व प्रशासन के समक्ष ज्ञापन सौंपकर या जनमंच कार्यक्रमों में अपना विरोध प्रकट करते रहते हैं, लेकिन सियासी रसूख की औकात के आगे यह सब चीजें बौनी साबित होकर नजरअंदाज हो जाती हैं। राज्य में पेयजल आपूर्ति का मुख्य साधन रही खड्डों की बदहाली का दूसरा आलम यह रहा कि कुछ समय पूर्व तक इनके पानी से इन खड्डों के किनारों पर पनचक्की (घराट) चला करते थे और घराट चलाने वाले समाज की खड्डों तथा कूहलों की निगरानी व इनके संरक्षक के तौर पर महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। आधुनिकता के दौर में घराटों का वजूद मिटने के साथ ही खड्डें उपेक्षा का शिकार होकर खनन माफिया की गिरफ्त में चली गईं, जो पेयजल की त्रासदी तथा खड्डों के बिफरने का बड़ा कारण बना। नदियों की साफ-सफाई व तटीयकरण के लिए सरकारें करोड़ों रुपए के पैकेज जरूर स्वीकृत करती हैं, लेकिन धरातल पर सकारात्मक परिणाम नहीं निकलते। इन नदियों व खड्डों के किनारों पर कई होटलों के कचरे तथा औद्योगिक इकाइयों व जहर उगल रही फैक्टरियों से उत्सर्जित रासायनिक अपशिष्टों से नदी-नालों के पानी की स्वच्छता सर्वाधिक प्रभावित हुई है। औद्योगिक क्षेत्रों के नजदीक बह रही नदियों के विषाक्त पानी से कई जलचर जीवों के साथ पशुओं के मरने के समाचार अकसर प्रकाशित होते रहते हैं, जबकि औद्योगिक क्षेत्रों में मौजूद उद्योगों के लिए कड़े-कायदे व कानूनों का मसौदा लागू है। 26 मार्च, 1974 से देश में ‘जल प्रदूषण अधिनियम’ लागू है, इसके साथ ‘जल प्रदूषण एक्ट-1977’ भी मौजूद है। इसी कड़ी में पानी व जल स्रोतों की प्रदूषण से रक्षा के लिए ‘ड्रेनेज एक्ट-1873’ जैसे कड़े कानूनों का व्यापक निर्माण किया गया है। जल स्रोतों को दूषित करना इन कानूनों की सीधे तौर पर अवमानना है। बहरहाल नदियों के पानी में बीओडी की मात्रा में वृद्धि जैसी भयानक समस्या के त्वरित समधान के लिए औद्योगिक कचरे का उचित निपटान तथा अवैध खनन पर लगाम के लिए स्थायी योजना के साथ पहलकदमी की सख्त जरूरत है। इन नदियों के किनारों पर महाआरती के साथ इनके निर्मलीकरण के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण, सामूहिक प्रतिबद्धता तथा आचरण को भी विषय बनाना होगा। इसके लिए सरकारी नीतियों या सियासी आश्वासनों पर ही निर्भर रहना उचित नहीं, बल्कि प्रदूषित हो रहे जलस्रोतों तथा नदी-नालों की स्वच्छता की दिशा में हर वर्ग को अपने कर्त्तव्य का बोध समझकर सार्थक योगदान देना होगा, ताकि प्रदूषण से ग्रसित होकर हाशिए पर जा रही आस्था की नदियों की अस्मिता व वैभव सुरक्षित रहे। अन्यथा इनका हश्र भी उज्जैन की ‘शिप्रा’ तथ गया की ‘फालगु’ जैसी पवित्र व धार्मिक महत्त्व वाली मोक्षदायिनी नदियों जैसा होगा, जो आज अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही हैं।