परम सौभाग्य का प्रतीक

श्रीराम शर्मा

आशीर्वाद प्राप्त कर लेना हिंदू धर्म में परम सौभाग्य तथा विजय का सूचक माना गया है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अपने से बड़े बुजुर्ग, माता-पिता एवं गुरुजनों से आशीर्वाद मिलने से मनुष्य का मनोबल बढ़ता है और उससे एक प्रकार की शक्ति अनुभव की जाती है। इसलिए प्रत्येक मंगल कार्य, उत्सव, पर्व तथा किसी भी शुभ कार्य के आरंभ में अपने से बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। यह बड़ों के प्रति सम्मान प्रकट करने और आत्मबल संपन्न होने का लक्ष्य है। जो ऐसा नहीं करता उसे नीच प्रकृति का उच्छृंखल व्यक्ति माना जाता है। किसी के प्रति सम्मान प्रकट करने या प्रणाम करने से मनुष्य छोटा नहीं हो जाता, वरन इससे श्रेष्ठत्व की प्रतिष्ठा होती है और उस उच्च भावना का लाभ भी मिले बिना नहीं रहता। शुद्ध अंतःकरण से किया हुआ नमन आंतरिक शक्तियों को जगाता है। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषों ने सदैव ही इस मर्यादा का पालन किया है। भगवान राम और आचार्य रावण में पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता थी। राम, रावण की कुटिलता को जानते थे, किंतु पांडित्य और श्रेष्ठता के प्रति उनके हृदय में जो श्रद्धा भावना थी, उसके वशीभूत होकर ही उन्होंने विपरीत परिस्थिति में भी इस नैतिक मर्यादा का पालन किया था। सैद्धांतिक मतभेद के बावजूद भी व्यावहारिक जीवन में बड़ों को सम्मान देने का उच्च आदर्श भारतीय संस्कृति की अपनी निजी विशेषता है। वह आत्मा ही बलवान होता है, जो प्रभुसत्ता के समक्ष अपने आप को बिलकुल लघु मानता है और तुलसीदास जी के शब्दों में ‘सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि युग पानी’ की भावना रखने वाला ही सच्चा कर्मयोगी होता है। अनावश्यक अभिमान मनुष्य को पतित बनाता है। इसका उदय न हो इसलिए बड़ों के समक्ष सदैव विनम्र होकर रहने की शिक्षा हमें दी गई है। महाभारत में अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं, जब विपक्षी पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य के अर्जुन आदि पांडव चरण स्पर्श करते और उनका शुभाशीष प्राप्त करते हैं। शिष्य की निष्ठा से द्रवीभूत गुरु उनकी जय कामना करते है और वैसा होता भी है। यदि यह मान लें कि विजय का हेतु उनकी शक्ति थी, गुरुजनों का वरदान नहीं तो भी यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि जो शक्ति अभियान के वशीभूत न हो वह श्रेष्ठ तो होगी ही और उस श्रेष्ठता से लाभान्वित होने का लाभ तो उन्हें अनायास मिला ही। सम्मान से प्रत्येक व्यक्ति को एक प्रकार की आध्यात्मिक तृप्ति मिलती है, उसे प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। आपको भी सम्मान मिले इसके लिए इस आदि सभ्यता की परंपरा को जीवित रखना चाहिए। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आधुनिक शिक्षाधारी व्यक्तियों में अहंकार इतना बढ़ रहा है कि बड़ों को सम्मान देना वे अनावश्यक समझते हैं। इसे वे छोटापन मानते हैं। कई व्यक्ति तो माता-पिता को मारने पीटने को, उन पर रोब दिखाने में ही अपना बड़प्पन मानते हैं। यह हमारी संस्कृति के नाम पर कलंक ही है कि लोग अपने जन्मदाताओं को त्रास दें। गुरु परंपरा तो प्रायः समाप्त सी होती जा रही है और उनके प्रति उनकी भावनाएं भी बिलकुल ओछी हो गई है।