राम का नाम बदनाम न करो

आजकल ‘मॉब लिंचिंग’ का शोर बहुत सुना जा रहा है। दिल्ली, जयपुर से रांची, सूरत और अलीगढ़, मेरठ, उन्नाव तक अकसर खबरें आती रहती हैं कि एक भीड़ ने ‘जय श्रीराम’ के नाम पर मारपीट की है। किसी की हत्या भी हो गई है। जुलाई, 2018 में भारत के प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाली न्यायिक पीठ ने भीड़ की ऐसी हिंसा को ‘जघन्य’ अपराध करार दिया था। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला था कि इस संदर्भ में केंद्र सरकार अविलंब कानून बनाए। यह सुझाव भी दिया गया कि फास्ट टै्रक कोर्ट्स स्थापित किए जाएं, प्राथमिकी दर्ज करने में देरी न की जाए, पीडि़तों और उनके परिजनों के लिए मुआवजे की योजनाएं तैयार की जाएं। उसके मद्देनजर उत्तर प्रदेश के राज्य विधि आयोग ने पहल की और कानून का मसविदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सौंपा। प्रस्तावित कानून में उम्रकैद तक की सजा के प्रावधान का सुझाव दिया गया है। इसके अलावा, सात और दस साल की जेल के प्रावधान भी रखे गए हैं। उत्तर प्रदेश में वह मसविदा विचाराधीन है। यदि अदालत उसका सकारात्मक तौर पर संज्ञान लेती है, तो उत्तर प्रदेश विधानसभा में वह मसविदा पारित कर कानून बन सकता है, लेकिन सवाल और संदर्भ केंद्र सरकार का है। क्या उसी मसविदे को ग्रहण कर संसद भी पारित करके कानून बना सकती है? दरअसल यह समस्या उत्तर प्रदेश की नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय है और इसकी आड़ में राजनीति खेली जा रही है। हालांकि उसके रूप भिन्न हैं। शोध का सवाल यह भी है कि ऐसी भीड़ अचानक क्यों और कहां से उभर आई है? वह हिंसक और हत्यारी भीड़ कौन है, कमोबेश इसकी पहचान तो होनी ही चाहिए? विडंबना यह है कि एक ओर ‘जय श्रीराम’ का नारा है, तो पलट कर ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ की आवाज सुनाई देती है। नफरत और सांप्रदायिकता की इस होड़ ने माहौल को ‘हिंदू-मुसलमान’ में बांट दिया है। फसाद के आसार पनपने लगे हैं। हरेक घटना को ‘मॉब लिंचिंग’ का नाम दिया जा रहा है। झगड़ा, मारपीट, हत्या, दंगे सभी को ‘भीड़ की हिंसा’ के दायरे में कैद किया जा रहा है। इन अपराधों की कोई तय परिभाषा नहीं है। ‘जय श्रीराम’ को इस कद्र बदनाम किया जा रहा है, मानो ये नारेबाज ही कातिल हैं। लिहाजा इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश के उन्नाव शहर का तनाव गौरतलब कहा जा सकता है कि आखिर हकीकत क्या होती है? बीते दिनों उन्नाव में सांप्रदायिक दंगा होते-होते बचा। घटना यूं थी कि मदरसे के कुछ बच्चे मैदान में क्रिकेट खेलने गए थे। वहां तीन-चार दूसरे युवक भी आ गए। उन्होंने ‘जय श्रीराम’ का नारा बोलने को मदरसे के बच्चों को बाध्य किया। मुस्लिम बच्चों ने इनकार कर दिया, तो उन्हें बल्ले से मारा-पीटा गया। न जाने किन पलों में उस घटना को धार्मिक रंग दे दिया गया। हम उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के आभारी हैं, जिन्होंने एक वारदात को फसाद में तबदील होने से बचा लिया और सच भी सामने आया। पुलिस ने कबूल किया कि मारपीट की बात तो सही थी, लेकिन ‘जय श्रीराम’ का नारा बोलने को बाध्य किया गया, यह बात गलत है। पुलिस के अतिरिक्त महानिदेशक स्तर के अधिकारी ने यह खुलासा भी किया कि उन्नाव ही नहीं, मेरठ, आगरा, अलीगढ़ में भी ‘राम’ के नारे के आरोप गलत थे। दूसरी तरफ करीब 90 घटनाओं की ऐसी सूची सामने आई है, जिनमें ‘हिंदू’ मारे गए। क्या उन घटनाओं को ‘लिंचिंस्तान’ से नहीं जोड़ेंगे? भीड़ की हिंसा का धर्म से कोई सरोकार नहीं है। बंगाल में ‘जय श्रीराम’ बोलने वालों को दंडित किया जाता है। कइयों की हत्या भी कर दी गई है। जिस देश और महाद्वीप में भगवान राम का नाम आस्था का प्रतीक हो,  सार्वजनिक अभिवादन में इस्तेमाल किया जाता रहा हो, सभ्यता और संस्कृति का सूचक हो, उसी की आड़ में हत्याएं कैसे की जा सकती हैं? बेशक यह नारा एक निश्चित वोटबैंक का हो सकता है, लेकिन ‘राम नाम जपना, मुस्लिमों का वोट अपना’ फार्मूला किनका है? यह छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों का है, जो भीड़ की हिंसा का ‘हिंदूवादी’ चेहरा पेश कर अपनी सियासी रोटियां सेंकते रहे हैं। अब कानून बनेगा, तो वे भी बेनकाब होंगे। उन्नाव में मुसलमानों के एक पक्ष ने मस्जिद में लामबंद भीड़ की आड़ में धमकी सी दे डाली कि यदि वह भीड़ सड़कों पर फैल गई, तो उसे प्रशासन भी संभाल नहीं सकेगा, लेकिन उसी पक्ष ने वह हकीकत गोल कर दी, जब बिजनौर के एक मदरसे से बंदूकें और असलाह बरामद किए गए थे। यदि पुलिस उसे सार्वजनिक कर आपराधिक केस बनाती, तो अंगुलियां उत्तर प्रदेश की ‘हिंदूवादी’ सरकार पर उठतीं। बहरहाल सच यह है कि देश का बहुसंख्यक अल्पसंख्यक को मारने पर आमादा नहीं है, बल्कि कुछ बिगड़ैल ऐसे हैं, जो ‘श्रीराम’ का नाम बदनाम करने पर तुले हैं। उन्हें सबक सिखाने को सख्त कानून की यथाशीघ्र दरकार है।