उभयोः काष्ठयोर्मध्ये भ्रमतो मंडलानि तु। दिवा नक्तच सूर्यस्य मन्दा शीघ्र च वैं गतिः।।
मंदाहिन यस्मिन्नयने शीघ्रा नक्तं तदा गतिः।
शीघ्रा निशि यदा चास्या तदा मन्दा दिवा गतिः।।
एक प्रमाणमेवैय मार्ग याति दिवाकरः।
अहोरात्रेण भुङक्ते समस्ता राशयो द्विज।।
षडेव राशीन यो भुङक्ते रात्रावन्याश्च षड्दिवा।
राशिप्रमाणजनिता दीर्घह्यत्वात्मता दिने।।
तथा निषायां राशीनां प्रमाणैलघुदीर्घता।
दिनादेर्दाेर्घहनस्वत्वं तद्भागेनैव जायते।।
उत्तरे प्रक्रमेशीघ्रा निशि मंदा गतिदिवा।
दक्षिणे त्वयेन चैव विपरीता विवस्वतः।।
इस प्रकार उत्तर दक्षिण की सीमाओं के बीच में मंडलाकार घूमने से सूर्य की गति जिस अयन में धीमी होती है, उस समय अयन में रात्रि के समय द्रुत हो जाती है और जब रात्रि के समय शीघ्र गति होती है तब सूर्य की दिन में धीमी गति होती जाती है। हे द्विज सूर्य को सदैव एक समान मार्ग ही पूरा करना होता है। एक दिन रात्रि में ही यह सभी राशियों का भोग करता है। यह छह राशियों को रात्रिकाल से छह को दिन के समय भोगता है। राशियों के परिणाम से ही दिन की वृद्धि अथवा हृस होता है। रात्रि का छोटा या बड़ा होना भी राशियों के परिणाम के अनुसार होता है। राशियों के भाग के अनुसार ही दिन या रात्रि की लघुत्व या दीर्घत्व होता। उत्तरायण में रात्रि के समय सूर्य की गति में शीघ्रता और दिन के समय मंदता होती है, परंतु दक्षिणायन में उसकी गति इससे नितांत विपरीत होती है।
उषा रात्रिः समख्याता प्युतुष्टश्चाप्युच्यते दिनम।
प्रोरूते च तथा संध्या उषाव्युष्टयोर्यदन्तरम्।
संध्याकले च सम्प्राप्ते रौद्रे परमर्दारुणे।
मंदेहा राक्षसा घोराः सूर्यमिच्छान्नि खादितुम।
प्रजापतिकृतः शापस्तेषां मैधेय रक्षसाम्।
अक्षयत्व शरीराणां मरणं च दिने दिने।
ततः सूर्यस्त तैयुद्धं भवत्यत्यंतदारुणम्।
ततो द्विजोत्तममास्तोमं सगिक्षपन्ति महामुने।
ऊंकारब्रह्मसंयुक्तं गायत्र्या चाभिमन्त्रतम। तेन दह्यंति ते पापा वज्रीभूतेन वारिणा।
अग्निहोत्रे हयते या समन्त्रा प्रथमाहुतिः।
सूर्यों ज्योतिः सहास्राशुस्तया दोंप्यति भास्करः।
औङ्कारो भगवान्तिष्णुस्त्रिधामा वचतां पतिः। तुदच्चारणतस्ते तु विनाश यान्ति राक्षसाः।
रात्रि को उषा ओर दिन को व्युष्टि कहा गया है इस उषा और व्युष्टि से मध्यकाल को ही संध्या कहते हैं। जब यह अरयत्न दारुण और भयंकर संध्या काल उपस्थित होता है। तब सन्हदेहा संज्ञक घोर राक्षस गण सूर्य का भक्षण करने की इच्छा करते हैं। मैत्रेय जी! उन राक्षसों को प्रजापतिक यह श्राप लगा हुआ है कि उनके शरीरों में अर्क्षयत्व होते हुए भी प्रतिदिन उनकी मृत्य हो। इसलिए संध्याकाल उपस्थित होने पर उनका सूर्य से अत्यंत दारुण संग्राम होता है, उस समय श्रेष्ठ ब्राह्मण द्वारा जो ब्रह्मरूप प्रणव एंव गायत्री से अभिमंत्रित जल छोड़ा जाता है, वह जल ब्रजरूप होकर उन दुष्ट राक्षसों को भस्म कर देता है। अग्निहोत्र में ‘सूर्यों’ ज्योति, इत्यादि मंत्र से दी जाने वाली प्रथमाहुति से सहस्ररश्मि भगवान भास्कर देदीप्यमान होते हैं। ओंकार ही जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति रूप तीन धामों से परिपूर्ण भगवान विष्णु और सभी प्राणियों का अधीश्वर है, उसका उच्चारण होने से ही राक्षसों का नाश हो जाता है।