श्री गोरख महापुराण

जो सब ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी होगा। बारह वर्ष बाद नगर भ्रमण करता हुआ मैं तुम्हारे घर आऊंगा और तभी तुम्हारे पुत्र को अपना शिष्य बनाऊंगा। सरस्वती ने भस्मी लाकर घर के आले में रख दी और मन में विचारा कि ऋतुवंती होने के पश्चात इसे खा लूंगी। जब वह घर के कामों से निपटकर, फुर्सत के समय पास-पड़ोस में अपनी सखी-सहेलियों के पास मनोरंजन करने गई तो योगी की भस्मी की चर्चा को करना न भूली। तभी उनमें से एक चतुर सखी बोली, बहन! क्या पागल हो गई है? उस भस्मी को भूलकर भी मत खाना। यह संत-महंत बड़े पाखंडी होते हैं। किसी बदमाश दुश्मन के कहने से जादू की भस्मी या जहरीला विष दे जाते हैं, जिसके खाने से मृत्यु तक हो जाती है या जादू करके जेवर, कपड़े, बरतन-भांडे जो इनके हाथ लगे लेकर रफूचक्कर हो जाते हैं। अगर इनकी भस्मी से बांझों के संतान होने लगे, तो पृथ्वी पर ढूंढने  से भी एक बांझ स्त्री नहीं मिलेगी। न जाने कितनी नारियों की इज्जत इन बदमाशों ने लूट ली है। कलियुग में योगियों का ही बोलबाला है। जरा सोचो, सच्चे संत क्या घर-घर में भिक्षापात्र उठाए फिरते हैं? अरी भोली बहन! सच्चे संत तो वनों में रात-दिन तपस्या करते रहते हैं। उन्हें दुनिया वालों से क्या लेना-देना। उनके भोजन की फिक्र तो प्रभु खुद करते हैं। जितने मुंह उतनी बातें। सरस्वती को भस्मी खाने की राय किसी ने भी नहीं दी। फिर उसने भी सोचा-बात तो ठीक मालूम पड़ती है। इस प्रकार की घटनाएं रात-दिन सुनने में आती ही रहती हैं। यह बात है भी ठीक अगर भस्मी द्वारा पुत्र प्राप्ति होने लगे तो संसार में एक भी बांझ स्त्री न मिले। न बाबा न मैं अभी घर जाकर उस भस्मी को कूड़े में फेंक दूंगी। उसने ऐसा विचार बनाकर घर आकर पास ही गोबर के गड्ढे में उस भस्मी को फेंक दिया। उसके ऊपर नगरी के नर-नारियों ने अपने घरों का कूड़ा-कर्कट, गोबर वगैरह डाल-डालकर गड्ढे को भर दिया, परंतु योगी की भस्मी ने अपना प्रभाव कम न होने दिया। खेत के बीज की तरह उस गड्ढे में भी अंकुर फूटे। पानी की असुविधा होने के कारण अंकुरों को फूटने में देर भी लगी। आहिस्ता-आहिस्ता बारह वर्ष भी पूरे हो गए और सरस्वती बेचारी बांझ ही बनी रही। बारह वर्ष पूरे होने पर योगी अलख करता हुआ पहुंचा। सरस्वती के दरवाजे पर आते ही योगी ने सोचा इस पतिव्रता का बालक ग्यारह वर्ष कुछ महीने का हो गया होगा। उधर, नियमानुसार सरस्वती संत के लिए भिक्षा लेकर आई तो उसे बारह वर्ष पहले के योगी को पहचानने में देर नहीं लगी। योगी के मुख के तेज देखकर वह पीली पड़ गई। भस्मी फेंक देने के कारण कहीं योगी श्राप देकर भस्म न कर डाले। यह सोचकर उसने थर-थर कांपते हुए भिक्षापात्र में भिक्षा डालने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, परंतु योगी ने भिक्षापात्र पीछे हटाते हुए कहा कि माता! अब तो आपका  बेटा काफी बड़ा हो गया होगा। क्या मुझे उसके दर्शन नहीं कराओगी? सरस्वती के मुख से बोल निकला नहीं। वह धर्म संकट में फंस गई। सरस्वती को चुप देख योगीराज बोले, माता क्या संतान पैदा नहीं हुई या होकर नष्ट हो गई? आप कुछ तो मुख से बोलें। योगी के मुख के तेज देखकर सरस्वती और भी ज्यादा भयभीत हो गई और उसे सब विवरण सच-सच बताना पड़ा कि आपकी दी हुई भस्मी मैंने न खाकर पड़ोसनों के बहकावे में आकर कूड़े में फेंक दी थी। योगी ने कहा, चलकर वह जगह मुझे बताओ।

सरस्वती ने उस गड्ढे को जा बताया, जो उसके घर के निकट ही था। योगी ने गड्ढे के पास जाकर आवाज दी, हे हरिनारायण सूर्यपुत्र! यदि तुम्हारी उत्पत्ति हो चुकी है, तो इस गड्ढे से बाहर निकल आओ। योगी की आवाज के उत्तर में गड्ढे में से आवाज आई, गुरुजी! पैदा तो मैं हो चुका हूं, परंतु गोबर के ढेर से दबा होने के कारण असमर्थ हूं। आप मुझे यहां से निकालने की कृपा करें।