संन्यासी की बात

ओशो

एक यात्रा की बात है। कुछ वृद्ध स्त्री-पुरुष तीर्थ जा रहे थे। एक संन्यासी भी उनके साथ थे। मैं उनकी बात सुन रहा था। संन्यासी उन्हें समझा रहे थे, मनुष्य अंत समय में जैसे विचार करता है, वैसी ही उसकी गति होती है। जिसने अंत संभाल लिया, उसने सब संभाल लिया। मृत्यु के क्षण में परमात्मा का स्मरण होना चाहिए। ऐसे पापी हुए हैं, जिन्होंने भूल से अंत समय में परमात्मा का नाम ले लिया था और आज वे मोक्ष का आनंद ले रहे हैं। संन्यासी की बात अपेक्षित प्रभाव पैदा कर रही थी। सच ही सवाल जीवन का नहीं, मृत्यु का ही है  और जीवन भर के पापों से छूटने को भूल से ही सही, बस परमात्मा का नाम लेना ही पर्याप्त है। फिर वे भूल से नहीं जान बूझकर तीर्थ जा रहे थे।  मैं संन्यासी की बात सुनकर हंसने लगा, तो संन्यासी ने क्रोध से पूछा, क्या आप धर्म पर विश्वास नहीं करते हैं?  मैंने कहा, धर्म कहां है? अधर्म के सिक्के ही धर्म बनकर चल रहे हैं। खोटे सिक्के ही विश्वास मांगते हैं, असली सिक्के तो आंख चाहते हैं। विश्वास की उन्हें आवश्यकता ही नहीं। विवेक जहां अनुकूल नहीं है, वहीं विश्वास मांगा जाता है। विवेक की हत्या ही तो विश्वास , लेकिन न तो अंधे मानने को राजी होते हैं कि अंधे हैं और न विश्वासी राजी होते हैं। यह जो आप इन वृद्धों को समझा रहे हैं, क्या उस पर कभी विचार किया है? जीवन कैसा ही हो, बस अंत समय में अच्छे विचार होने चाहिए। क्या इससे भी अधिक बेईमानी की कोई बात हो सकती है और क्या यह संभव है कि  वृक्ष नीम का और फल आम के खा रहे हैं? जीवन जैसा है,उसका निचोड़ ही तो मृत्यु के समय चेतना के समक्ष हो सकता है। मृत्यु क्या है? क्या वह जीवन की ही परिपूर्णता नहीं है? वह जीवन के विरोध में कैसे हो सकती है? वह तो उसका ही विकास है। ये कल्पनाएं काम नहीं देंगी कि पापी अजामिल मरते समय अपने लड़के नारायण को बुला रहा था और इसलिए भूल से भगवान का नाम उच्चारित हो जाने से सब पापों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो गया। मनुष्य का पापी मन क्या-क्या आविष्कार नहीं कर लेता है और इन भयभीत लोगों का शोषण करने वाले व्यक्ति तो सदा ही मौजूद हैं। फिर भगवान का क्या कोई नाम है? भगवान की स्मृति तो एक भावदशा है। अहंकार शून्यता की भावदशा ही परमरत्मा की स्मृति है।  जीवन भी अहंकार की धूल को जो शून्यता से झाड़ता है, वहीं अंततः अहं-शून्यता के निर्मल दर्पण को उपलब्ध कर पाता है। यदि कोई किसी नाम को भगवान मानकर जीवन भर धोखा खाता रहे, तो भी उसकी चेतना भगवत चैतन्य से भरने की बजाय और जड़ता से ही भर जाएगी। अजामिल पता नहीं अपने नारायण को किसलिए बुला रहा था। बहुत संभव तो यही है कि अंत समय को निकट जानकर अपने जीवन की कोई अधूरी योजना उसे समझाना चाहता हो। अंतिम क्षणों में स्वयं के जीवन का केंद्रीय तत्त्व ही चेतना के समक्ष आता है और आ सकता है।