साधना और करुणा

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

लेकिन फिर भी उम्मीदों से भरे सभी भक्त उनकी सेवा में लगे रहे। सभी भक्तों ने उनकी बड़ी सेवा की, किसी ने उनकी सेवा में कोई कमी नहीं की। नरेंद्र अनयंचित हो गुरुदेव द्वारा प्रदर्शित उपाय से साधना के रास्ते में द्रुत उन्नति करने लगे। वह कठोर इंद्रिय निग्रह प्रबल उत्साह, भरपूर विश्वास के साथ सत्य को प्राप्त करने के लिए प्राण-प्रण से लगे रहते। कभी किसी दिन नरेंद्र रात को दक्षिणेश्वर चले जाते और पंचवटी के नीचे ध्यान करने। उनका तीव्र अनुराग देखकर श्री राम कृष्ण बड़े आनंदित होते। एक दिन नरेंद्र को अपने पास बुलाकर बोले, देख साधना करते समय मुझे आठ सिद्धियां मिली थीं। उनका किसी दिन कोई उपयोग नहीं हुआ। तू ले ले, भविष्य में तेरे बहुत काम आएंगी। नरेंद्र ने पूछा क्या उनसे भगवान प्राप्ति में कोई सहायता मिलेगी? श्री राम कृष्ण ने उत्तर दिया नहीं, सो तो नहीं होगा, पर इस लोक की कोई भी इच्छाएं अपूर्ण नहीं रहेंगी । तनिक भी सोच-विचार करते हुए त्यागी श्रेष्ठ नरेंद्र ने उत्तर दिया,तब तो महाराज वो मुझे नहीं चाहिए। फिर एक दिन श्री रामकृष्ण देव ने अपने तरुण शिष्यों को संन्यास देने का संकल्प किया। शुभ दिन में शिष्यों के हाथों में गेरुआ सभावस्त्र देकर उन्होंने उनके नेता नरेंद्र नाथ को बुलाकर कहा, क्या तुम लोग संपूर्ण निराभिमानी बनकर शिक्षा की झोली कंधों पर लिए राजपथों पर भिक्षा मांग सकोगे। उसी समय सभी शिष्य गुरुदेव के आदेश से भिक्षा मांगने निकल पड़े और जो कुछ अन्न उन्हें मिला, उसे पाकर उन्होंने श्री रामकृष्ण के सामने रखते हुए बाद में आपस में बांटा। इसमें श्री रामकृष्ण को बड़ी खुशी महसूस हुई। उच्च शिक्षा और ऊंचे वंश की गौरववृद्धि से रहित युवक संन्यासियों का तीव्र वैराग्य देखकर श्री रामकृष्ण आनंद से विभोर हो  उठे थे। नरेंद्र के संन्यास ग्रहण करने के बाद अतीत युग प्रवर्तक संन्यासियों के जीवन उपदेशों की चर्चा ही नरेंद्र का लक्ष्य बन गया। भगवान बुद्धदेव के अपूर्व त्याग, उनकी अलौकिक साधना और असीमित करुणा नरेंद्र की रात-दिन की चर्चा का विषय बन गई। बुद्धदेव के ध्यान में डूबे नरेंद्र गुप्तरूप से दो गुरु भाइयों को साथ लेकर बुद्ध गया जाने की तैयारी करने लगे। रात में बिस्तर से उठकर चुपचाप नरेंद्र स्वामी शिवानंद और स्वामी अभेदनंद गंगा पार होकर बाली स्टेशन पर रेल में सवार हो गए। अप्रैल का महीना था। फल्गू नदी में वरुण संन्यासियों ने स्नान कर वहां से आठ मील दूर बोधिसत्व के मंदिर की तरफ भक्तिपूर्ण दिल से यात्रा की। इधर सवेरे नरेंद्र को न पाकर सारे भक्त चिंता में पड़ गए। चारों तरफ ढूंढ मच गई थी, नरेंद्र का कहीं पता नहीं था। जब यह बात श्री रामकृष्ण को पता चली तो एक मीठी मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा।