हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश

किस्त – दो

हिमाचल का नैसर्गिक सौंदर्य बरबस ही हरेक को अपनी ओर आकर्षित करता है। साथ ही यह सृजन, विशेषकर साहित्य रचना को अवलंबन उपलब्ध कराता रहा है। यही कारण है कि इस नैसर्गिक सौंदर्य की छांव में प्रचुर साहित्य का सृजन वर्षों से हो रहा है। लेखकों का बाहर से यहां आकर साहित्य सृजन करना वर्षों की लंबी कहानी है। हिमाचल की धरती को साहित्य सृजन के लिए उर्वर भूमि माना जाता रहा है। ‘हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश’ कितनी है, इस विषय पर हमने विभिन्न साहित्यकारों के विचारों को जानने की कोशिश की। पेश है इस विषय पर विचारों की दूसरी कड़ी…

पीढि़यों के फासले के बीच साहित्यिक गुंजाइश

दौलत भारती

बेशक हिमाचल में विकास की नई उंचाइयों की ओर बढ़ते हुए पीढि़यों के फासले बढ़े हैं, लेकिन हिमाचली जीवन में साहित्यिक गुंजाइश भी बढ़ी है। स्वतंत्रता के आंदोलन के दौरान यशपाल, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम सरीखे लेखकों की रचनाएं एवं रचनाकर्म आज भी अपना स्थान अमर किए हुए हैं। यायावर महापंडित राहुल सांकृत्यायन के लेखन में आजादी के आसपास हिमाचल की स्थिति, आचार व्यवहार, जीवनशैली, पिछडे़पन और विकास की संभावनाओं तथा विभिन्न वादियों की झलक मिलती है। बाबा नागार्जुन, अज्ञेय, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा सरीखे कई कवियों, कथाकारों एवं लेखकों के लेखन में हिमाचली परिवेश का समावेश भी उनकी रचनाओं को सफलता की कसौटी पर खरा उतारता है। यदि अब की बात करें तो हिमाचली कथाक ारों में एसआर हरनोट की कहानियों में हिमाचल की माटी की महक महसूस की जा सकती है। हिमाचली सरोकारों और संस्कृति की झलक प्रदेश के कई लेखकों की कलम से प्रस्फुटित रचनाओं में देखी जा सकती है। साहित्य के इतिहास के मुताबिक एक धारा के साथ नए युग का भी सूत्रपात हुआ। आदि काल होते हुए हम आज तक पहुंचे हैं। वास्तव में हिमाचल के जीवन में हमेशा साहित्य की गुंजाइश ही नहीं रही, बल्कि साहित्य प्रस्फुटित भी हुआ। लामण, लोकगीत, विवाह गीत, नाटियां, लोकनृत्य, स्वांग आदि विभिन्न विधाएं साहित्य का ही तो हिस्सा हैं। कुछ दशक पहले तक हिमाचल में सर्दियों के मौसम में जब पहाड़ बर्फ से लकदक होते थे तो चूल्हे की आग के चारों ओर बैठ कर लोग कथाएं सुनाया करते थे और सुना करते थे, पहेलियों का दौर चलता था। मेले-त्योहारों के अवसर पर नृत्यों आदि में तुकबंदी से नए-नए गीतों की रचना होती थी। लिहाजा कहा जा सकता है कि पुरातन काल से ही हिमाचली जीवन में साहित्य का समावेश रहा है। हिमाचली जीवन में तेजी से बदलाव आ रहा है। कहीं संस्कृति पीछे छूट रही है तो कहीं बुढ़ापा एकाकी हो रहा है। एक पीढ़ी ने संघर्ष से गुजरते हुए दूसरी पीढ़ी को राह दिखाई और तीसरी पीढ़ी आधुनिकता की राह है। बेशक अब परंपरागत वाद्ययंत्रों और गीतों पर डीजे भारी पड़ रहा है, लेकिन पहाड़ की संस्कृति, पहाड़ की पंरपराएं ही अभी तक पीढि़यों के फासले की दीवारों को पाट रही हैं। यही हिमाचली जीवन की एक विधा है जो सांस्कृतिक विरासत और परंपरा के दम पर पीढि़यों को एकसूत्र में पिरोए हुए है। शिक्षा के विस्तार के साथ ही हिमाचल में हिंदी पाठकों की तादाद लगातार बढ़ रही है। अब सवाल यह उठता है कि हम पाठकों के लिए क्या परोसते हैं? बदलते दौर में जरूरी नहीं कि साहित्य रचना प्रिंट में ही हो। डिजिटल दुनिया में भी साहित्यकार अपने आलोचक, अपने पाठकों की लंबी श्रृंखला जोड़ सकता है। हिमाचली सरोकारों में सामाजिक विकृतियां हों या हिमाचली संस्कृति का सरंक्षण या संवर्द्धन हो, पर्यावरण सरंक्षण की बात हो या फिर समाज को सही दिशा देने की राह हो, हिमाचली जीवन में ऐसी साहित्यिक गुंजाइश अब भी है और पहले से कहीं ज्यादा है। आज भी साहित्यकार परिकल्पना व अनुभव के जादू से समाज की बेहतरी के लिए अपना योगदान निभा सकता है।

लोक साहित्य के ऐतिहासिक विवेचन की जरूरत

अमरदेव आंगिरस

आजादी के पश्चात शिवालिक पहाडि़यों के एकीकरण से हिमाचल प्रदेश अस्तित्व में आया था। पुनर्गठन से यह विशाल हिमाचल तथा पूर्ण राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। हिमाचल का गठन ही यहां की पहाड़ी बोलियों, भौगोलिक स्थिति तथा क्षेत्रीय सामाजिक जीवन की एकरूपता के कारण वर्तमान स्वरूप में आया था। यहां की प्रमुख बोलियां चंबयाली, सिरमौर, कुल्लवी, कांगड़ी, मंडयाली, बघाटी, क्योंथली आदि हैं तथा अनेक उपबोलियां हैं। विडंबना है कि इन बोलियों के दृष्टिगत किसी एक बोली का ‘प्रादेशिक भाषा’ के रूप में स्वरूप निर्धारित नहीं हो सका है। पहाड़ी बोलियों के कारण ही यह क्षेत्र पंजाब से अलग अस्तित्व में आया था। इन बोलियों पर शोध के पश्चात ही हिमाचली बोली का स्वरूप निर्धारित हो सकता है। इस दिशा में पर्याप्त लेखन-अध्ययन की आवश्यकता है। सहत्तर के दशक में भाषा, संस्कृति विभाग के गठन से तत्कालीन नेताओं और साहित्यकारों ने पहाड़ी भाषा के विकास एवं प्रसार के लिए विभागीय पत्रिकाएं प्रकाशित कीं तथा इस दिशा में पर्याप्त प्रचार-प्रसार भी हुआ, परंतु प्रादेशिक बोली के निर्धारण में कांगड़ी-डोगरी के प्रपंच तथा राजनेताओं के राजनीतिक स्वार्थ के कारण पहाड़ी बोली का स्वरूप निर्धारण अथवा एक बोली का चुनाव न हो सका। वैसे देश की कुछ अन्य संविधान में स्वीकृत भाषाओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनकी अन्य कई उपबोलियां थी, फिर भी वे 8वीं अनुसूची में स्वीकृति पा सकीं जैसे-संथाली, बोडो, मैथिली आदि। फिर डोगरी का साहित्य हिमाचली बोलियों के साहित्य से नहीं आंका जा सकता। इस दिशा में पांच-छह दशकों में सभी विधाओं में पर्याप्त लेखन हुआ है, परंतु वर्तमान समय में साहित्यकारों में उपेक्षा का भाव देखा जा सकता है। इस दिशा में वरिष्ठ साहित्यकारों को ‘पहाड़ी’ में लेखन की ओर प्रयासरत होना होगा। इस दिशा में लेखन की पर्याप्त संभावनाएं हैं। हिमाचली लोक साहित्य का विशाल भंडार सामने आ चुका है, लोकगाथाएं, लोककथाएं, लोकगीत, पहाड़ी कविताएं संकलित तो हुई हैं, परंतु उनका ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक या कहें यथार्थवादी अध्ययन नहीं हुआ है। हिमाचल के प्रत्येक गांव का अपना एक मंदिर या देवता है, परंतु विडंबना है कि उसकी वंशावली, इतिहास आदि की पूर्ण जानकारी जनसाधारण तो क्या, देव-पुजारियों तक को नहीं है। इस दृष्टि से लोक साहित्य के ऐतिहासिक विवेचन की आवश्यकता है, नहीं तो 200-300 वर्ष पूर्व के लोक देवताओं एवं देवस्थानों का संबंध लोग पांडव काल अथवा सतयुग से ही जोड़ते रहेंगे। यह भी एक विडंबना है कि आज का युवा साहित्य से दूर होता चला जा रहा है। वह मोबाइल फोन व इंटरनेट पर ज्यादा व्यस्त लगता है। इसलिए जरूरत ऐसे साहित्य की रचना की है, जो साहित्य से दूर होते जा रहे युवा को अपनी ओर आकर्षित कर सके। हिमाचल में साहित्य रचना के लिए अनुकूल वातावरण बेशक मौजूद है, लेकिन स्तरीय साहित्य का सृजन होना अभी बाकी है। स्तरीय साहित्य के सृजन के जरिए ही हम युवा वर्ग को साहित्य के साथ जोड़ पाएंगे। हिमाचल में फिलहाल जो साहित्य रचा जा रहा है, वह संख्या की दृष्टि से पर्याप्त है, परंतु गुणवत्ता के नजरिए से उसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता। युवाओं को आकर्षित करने के लिए के लिए गुणवत्तायुक्त साहित्य की जरूरत है।

मूल्यों का हृस साहित्य के लिए जमीन तैयार कर रहा

अजीत दीवान

वैज्ञानिक युग की बेला में औद्योगीकरण, प्रौद्योगिकीकरण, नगरीकरण एवं आधुनिकता की भौतिकतावादी अंधी दौड़ में हिमाचली जीवन के भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व नैतिक जीवन में विकास की राह पर मूल्यों का हृस व विघटन किसी से छिपा नहीं है। परिवार व गांव टूट रहे हैं। मां-बाप, खेत-खलिहान छूट रहे हैं। लोग अपनी संस्कृति व सभ्यता भूल रहे हैं। रिश्ते तार-तार हो रहे हैं। अपने-अपने स्वार्थों व स्वार्थीपन के कारण समाज में अनेक विकृतियां पनपने से रुक नहीं पा रही हैं। हर स्थान पर विस्फोट की ज्वालाएं उठ रही हैं। कई इनसान इनसानियत को भूल कर अपने तक सिमट कर अपनी तूती बजाने व बजवाने में ही सीमित आत्मप्रशंसा में निशदिन रत हैं। इस स्थिति में देवभूमि का हिमाचली जीवन भी इस संक्रामक बीमारी से अछूता नहीं रह पा रहा है। ऐसी अवस्था में हिमाचली जीवन को नई दिशा देने हेतु साहित्य की गुंजाइश बढ़ती नजर आ रही है, क्योंकि लेखक की सशक्त लेखनी को भी कहीं न कहीं ग्रहण ग्रसित करता आभासित हो रहा है, जबकि समाज की चेतना बदलने में लेखक केंद्र बिंदु रहा है और उसकी सच्ची साहित्य साधना फलीभूत होती रही है व होती रहेगी, ऐसा विश्वास है। परंतु अब न जाने लेखक की क्या मजबूरी है? माना कि भाषा एवं संस्कृति विभाग व हिमाचल साहित्य अकादमी लेखकों को साहित्य सृजन व संस्कृति संवर्धन हेतु प्रेरक रही हो, मगर वहां भी जो होना हो, नहीं हो रहा है, यह एक विडंबना मानी जा सकती है। अस्तु साहित्य समाज का दर्पण रहा जो समाज को प्रतिबिंबित करता रहा है। समाज सुधारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, धर्म प्रचारकों, चिंतकों, बुद्धिजीवियों, दार्शनिकों, कवियों व लेखकों ने समाज के उत्थान के लिए रचित साहित्य से केंद्र में रहकर विशेष योगदान देकर अपनी भूमिका का निर्वहन किया है, जिस हेतु समाज कृतज्ञ है, रहेगा। एक दिन था हिमाचली जीवन साहित्य के कारण समाज को देखता था और पंख संवार कर प्रेरित नई-नई राहें बनाना, इबारत लिखने को लालायित रहता था। मगर आज हर क्षेत्र में परिदृश्य प्रतिकूल है। इस संकुचित विचारधारा, विघटन और प्रतिकूल को अनुकूल बनाने हेतु चिंतकों को चिंतन और लेखकों को निःस्वार्थ, निष्पक्ष, निष्कपट एवं सच्चे साहित्य साधक के रूप में केंद्र बिंदु बनकर समाज को दिशा देनी होगी, तथैव विघटनकर्ताओं के चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। ऐसा मेरा विचार है।

हिमाचली जीवन को साहित्य में स्थान देना होगा

कविता सिसोदिया

आज के युवा देश के साहित्य से लगभग अनभिज्ञ हैं। वे सोशल मीडिया में व्यस्त हैं, आवश्यकता है उनमें उच्चकोटि के साहित्य के प्रति अभिरुचि पैदा करने की। हर क्षेत्र में पांव पसारती राजनीति से निष्पक्ष और निर्भीक होकर निपटना होगा। समाज का सही, सत्य और वास्तविक चित्रण करना होगा। हिमाचली जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को उजागर करना, समस्याओं पर चिंता और उनके समाधान के लिए चिंतन, आज के साहित्य की अनिवार्यता है। समाज में पनप रहे आदमखोरों से सावधान करने वाले साहित्य की रचना करनी होगी। आज का पाठक विशेषकर युवा वर्ग क्षणिक भौतिक सुख को ही परम आनंद समझकर सही दिशा से भटक रहा है। उसे ऐसे साहित्य सृजन की आवश्यकता है, जो निर्भीकता, निष्पक्षता और आत्मीयता से सत्य की पहचान कराए। मानसिक आनंद का ज्ञान देने के साथ आत्मा को झकझोरने की क्षमता साहित्य में हो। हिमाचली जीवन का सही चित्रण, अपनी धरती माता खेतों के प्रति स्नेह-लगाव, कृषि से भागती पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी को सही दिशा-निर्देश, परिवार का महत्त्व, आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल होने से पहले उसके गुण, दोषों को परखना, किसानों को आधुनिक कृषि द्वारा संपन्न बनाना साहित्यकारों का लक्ष्य हो। हिमाचल की देवभूमि में तो इतनी प्राचीन परंपराएं, रीति-रिवाज, मंदिर, ऐतिहासिक स्थल हैं, मान्यताएं हैं, जिनका हिमाचली जीवन या इतिहास से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई न कोई संबंध है। इनको साहित्य में स्थान दिया जा सकता है। हिमाचली जीवन के हर क्षेत्र के इतिहास और अनुभव की जानकारी का खजाना कुछ बुद्धिजीवी उम्रदराज बुजुर्गों के पास भी है, जिन्हें हम प्रायः नजरअंदाज कर देते हैं। उनकी गाथाओं, खट्टी-मीठी सत्य घटनाओं को साहित्य में स्थान देकर, सूक्ष्म कारणों पर प्रकाश डालकर मंथन किया जा सकता है। भोले लोगों को चाटुकारों, पाखंडी लोगों की बातों में न आने का संदेश साहित्य सृजन द्वारा देना होगा। जो साहित्यकार यात्राओं में रुचि रखते हैं, वे हिमाचल की गोद में बसे मनभावन पर्यटक स्थलों, ऐतिहासिक खेलों, मनमोहक झीलों, बांधों, कारखानों आदि का जीवंत चित्रण कर हिमाचल की विश्व स्तर पर लोकप्रिय पहचान बना सकते हैं।

हिमाचल में लेखन के लिए अनुकूल वातावरण

नासिर यूसुफजई

हिमालय के पश्चिम में स्थित हिमाचल प्रदेश और इसकी खूबसूरत, शांत वादियों ने लेखकों, कवियों और शायरों को अक्सर अपनी ओर आकर्षित किया है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनेक लेखकों ने हिमाचल प्रदेश के अनेक स्थानों का भ्रमण किया और यहां रह कर अनेकों कालजयी रचनाओं का सृजन किया। आयरलैंड में जन्मी ब्रिटिश मूल की लेखिका नौरा रिचर्ड्स ने सन् 1911 में अंद्रेटा में कला ग्राम की स्थापना की। सन् 1915 में पाकिस्तानी पंजाब के हदाली कस्बे में जन्मे लेखक, उपन्यासकार और पत्रकार खुशवंत सिंह ने अपनी बहुत सी रचनाएं कसौली प्रवासों के दौरान ही रचीं। हिंदी के प्रसिद्ध लेखक, उपन्यासकार और अनुवादक निर्मल वर्मा का जन्म सन् 1929 में शिमला में हुआ। अंग्रेजी भाषा के विश्व प्रसिद्ध भारतीय लेखक रस्किन बॉण्ड का जन्म सन् 1934 में कसौली में ही हुआ। पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी और प्रसिद्ध क्रांतिकारी लेखक यशपाल का संबंध हिमाचल प्रदेश से ही है। उपन्यासकार उपेंद्र नाथ अश्क अक्सर हिमाचल प्रदेश आया करते थे। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने भी काफी समय शिमला में बिताया और रचना कार्य किया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिमाचल प्रदेश में लेखन के लिए अनुकूल वातावरण है और लेखन की अपार संभावनाएं हैं। कारण स्पष्ट है कि यहां का लेखक-कवि सदैव प्रकृति के बीच रहता है। वह उन बर्फीले पहाड़ों, बादलों, हरे-भरे जंगलों, नदियों, खेतों, झरनों, झीलों और ग्रामीण परिवेश के बहुत नजदीक है जो लेखक-कवि को आकर्षित करते हैं, लेखन के लिए प्रेरित करते हैं। यही वजह है कि आज हिमाचल प्रदेश में जहां उपन्यास, निबंध, कविता, दोहों, गीतों, गजलों, माहियो और हाइकु पर निरंतर कार्य हो रहा है, वहीं भाषा विभाग तथा भाषा, कला, संस्कृति अकादमी ने अपनी पत्रिकाओं और समय-समय पर किए जाने वाले साहित्यिक समारोहों के जरिए एक बेहतर माहौल बरकरार रखा है और उभरते नए लेखकों को बराबर मंच प्रदान कर लेखकीय संभावनाओं को भी कायम रखा है। निःसंदेह गैर सरकारी संस्थाएं भी अपने कार्यक्रमों के जरिए नए लेखकों को प्रोत्साहित कर रही हैं। हालांकि अध्ययन का वातावरण संतोषजनक नहीं है, फिर भी नए लेखक सामने आ रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के बहुत से स्थापित लेखकों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से देशभर में अपनी खास पहचान बनाई है तो नए लेखक भी राष्ट्रीय स्तर की स्थापित पत्रिकाओं में निरंतर छप रहे हैं और सराहे भी जा रहे हैं। इनमें द्विजेंद्र द्विज, पवनेंद्र पवन, मामराज शर्मा, गणेश गनी के साथ-साथ नवनीत शर्मा, पवन चौहान, डा. जयचंद शर्मा, दिनेश शर्मा, प्रदीप सैनी, मनोज कुमार, शैली किरण, डा. प्रियंका वैद्य और डा. अदिति गुलेरी आदि के नाम भी शामिल हैं।

सूचना

ये लेखकों के अपने विचार और विश्लेषण हैं। इन्हें इसी संदर्भ में लें तो साहित्यिक बहस उम्दा रहेगी। लेखों पर अपनी टिप्पणियां सीधे भेजें: साहित्य संपादक, ‘दिव्य हिमाचल‘, मटौर, कांगड़ा-176001 ‘साहित्य संवाद ’ से जुड़ने के लिए  व्हाट्सऐप नंबर 94183-30142 पर संपर्क करें।