अध्यात्म का अर्थ

ओशो

अध्यात्म का अर्थ है आत्म विकास। जीवन का, महाजीवन का, परमजीवन का विकास। जीवन है जन्म और मृत्य के बीच की गति। महाजीवन है, जन्म और मृत्यु की अनंत शृंखलाओं की महागति। परमजीवन है, परमात्मा में परमगति अर्थात पूर्ण विश्राम। जीवन और महाजीवन प्रकृति का हिस्सा है। परमजीवन हमारा चुनाव है, हमारी स्वतंत्रता है, हमारी संभावना है, हमारी धन्यता है, मनुष्य होने की गरिमा है। परमजीवन ही सही अर्थों में आध्यात्मिक जीवन है। मगर परमजीवन की साधना जीवन में ही संभव है। कह सकते हैं कि परमजीवन की साधना का ही दूसरा नाम है, अध्यात्म।

योग है अध्यात्म का विज्ञान, समाधि का विज्ञान, स्व-स्थित होने का विज्ञान। कबीर कहते हैं, ‘कोठरे महि कोठरी परम कोठरी बीचारि’ अर्थात शरीर है, शरीर के भीतर मन है, मन के भीतर आत्मा है। शरीर से आत्मा तक की दूरी कैसे तय करें, इसी का नाम है योग। योग के अनेक मार्ग हैं, अनेक पगडंडियां हैं। अलग-अलग चक्रों से हम अपने केंद्र तक यात्रा कर सकते हैं। मूलाधार सबसे नीचे है और सबसे ऊपर है, सहस्रार चक्र। स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र इनके बीच में हैं। इन्हीं चक्रों से गुजरकर जब हम अपने केंद्र यानी आत्मा की ओर चलते हैं, तो उसी का नाम है योग। ये सभी चक्र चेतना के अलग-अलग तलों का नियमन करते हैं। आप जिस भी चक्र से चलेंगे, उसके अनुसार योग की विधि बदल जाएगी। जैसेः मूलाधार से आत्मा की ओर चलने का नाम है कर्मयोग। स्वाधिष्ठान से आत्मा तक की यात्रा का नाम है, तंत्र योग। स्वाधिष्ठान चक्र का गुणधर्म है भोग। इसी प्रकार मणिपुर का गुणधर्म है श्वास और रक्षाभाव,अनाहत का प्रेम, विशुद्धि का विचार, मैत्री, धारणा और कल्पना। आज्ञाचक्र का ध्यान और सहस्रार का गुणधर्म है, समाधि जो पतंजलि के अष्टांगयोग का चरम है।

 जर्मन मनोवैज्ञानिक मैस्लो ने मनुष्य की जिन सात आवश्यकताओं का वर्णन किया है, वे सब चेतना के इन्हीं सात केंद्रों से जुड़े हैं। किंतु चेतना के मुख्य केंद्र आठ हैं और योग के भी मूलतः आठ प्रकार ही हैंः कर्मयोग, तंत्र योग, हठयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, सांख्ययोग और सहजयोग। ये आठों योग चेतना के आठों केंद्रों से जुड़े हुए हैं। योग के मुख्यतः तीन भाग हैं पिपीलिका, कपिल और सहज या विहंगम योग। साक्षी की साधना पिपीलिका योग, चैतन्य की साधना कपिल योग और सुमिरन तथा समाधि की साधना सहजयोग है। सहजयोग दमन और भोग दोनों के पार सहजता की बात करता है। यह सभी तरह के साधकों के लिए उपयुक्त है। सहजयोग यानी अपने स्वभाव में, अपनी फीलिंग में जीना, लेकिन हमारे जीवन में फीलिंग की जगह थिंकिंग ने ले ली है और हम अपने स्वभाव से बहुत दूर निकल चुके हैं। सहजयोग के नाम पर जो योग चलता है, सहजयोग वह नहीं है। सहजयोग की पहचान मुश्किल है।