किसी अजूबे से कम नहीं हैं महाभारत के पात्र

तब श्री कृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि कर्ण को कोई अधिकार नहीं है कि वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे, जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था। उन्होंने आगे कहा कि तब उसका धर्म कहां गया था जब उसने दिव्य-जन्मा (द्रौपदी का जन्म हवनकुंड से हुआ था) द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वेश्या कहा था। द्युत-क्रीड़ा भवन में उसका धर्म कहां गया था? इसलिए अब उसे कोई अधिकार नहीं कि वह किसी धर्म या युद्ध नियम की बात करे और उन्होंने अर्जुन से कहा कि अभी कर्ण असहाय है (ब्राह्मण का श्राप फलीभूत हुआ), इसलिए वह उसका वध करे…

-गतांक से आगे…

तब श्री कृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि कर्ण को कोई अधिकार नहीं है कि वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे, जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था। उन्होंने आगे कहा कि तब उसका धर्म कहां गया था जब उसने दिव्य-जन्मा (द्रौपदी का जन्म हवनकुंड से हुआ था) द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वेश्या कहा था। द्युत-क्रीड़ा भवन में उसका धर्म कहां गया था? इसलिए अब उसे कोई अधिकार नहीं कि वह किसी धर्म या युद्ध नियम की बात करे और उन्होंने अर्जुन से कहा कि अभी कर्ण असहाय है (ब्राह्मण का श्राप फलीभूत हुआ), इसलिए वह उसका वध करे। श्री कृष्ण कहते हैं कि यदि अर्जुन ने इस निर्णायक मोड़ पर अभी कर्ण को नहीं मारा तो संभवतः पांडव उसे कभी भी नहीं मार सकेंगे और यह युद्ध कभी भी नहीं जीता जा सकेगा। तब अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। कर्ण के शरीर के भूमि पर गिरने के बाद एक ज्योति कर्ण के शरीर से निकली और सूर्य में समाहित हो गई।

कर्ण की मृत्यु के पश्चात

युद्ध समाप्ति के पश्चात, मृतक लोगों के लिए अंत्येष्टि संस्कार किए जा रहे थे। तब माता कुंती ने अपने पुत्रों से निवेदन किया कि वे कर्ण के लिए भी सारे मृतक संस्कारों को करें। जब उन्होंने यह कहकर इसका विरोध किया कि कर्ण एक सूत पुत्र है, तब कुंती ने कर्ण के जन्म का रहस्य खोला। तब सभी पांडव भाइयों को भ्रातृहत्या के पाप के कारण झटका लगता है। युधिष्ठिर विशेष रूप से अपनी माता पर रुष्ट होते हैं और उन्हें और समस्त नारी जाति को यह श्राप देते हैं कि उस समय के बाद से स्त्रियां किसी भी भेद को छुपा नहीं पाएंगी। युधिष्ठिर और दुर्योधन, दोनों कर्ण का अंतिम संस्कार करना चाहते थे। युधिष्ठिर का दावा यह था कि चूंकि वह कर्ण के कनिष्ठ भ्राता हैं, इसलिए यह अधिकार उनका है। दुर्योधन का दावा यह था कि युधिष्ठिर और अन्य पांडवों ने कर्ण के साथ कभी भी भ्रातृवत् व्यवहार नहीं किया, इसलिए अब इस समय इस अधिकार को जताने का कोई औचित्य नहीं है। तब श्रीकृष्ण मध्यस्थता करते हैं और युधिष्ठिर को यह समझाते हैं कि दुर्योधन की मित्रता का बंधन अधिक सुदृढ़ है, इसलिए दुर्योधन को कर्ण का अंतिम संस्कार करने दिया जाए। जब 18 दिन का युद्ध समाप्त हो जाता है, तो श्री कृष्ण, अर्जुन को उसके रथ से नीचे उतर जाने के लिए कहते हैं। जब अर्जुन उतर जाता है तो वे उसे कुछ दूरी पर ले जाते हैं। तब वे हनुमान जी को रथ के ध्वज से उतर आने का संकेत करते हैं। जैसे ही श्री हनुमान उस रथ से उतरते हैं, अर्जुन के रथ के अश्व जीवित ही भस्म हो जाते हैं और रथ में विस्फोट हो जाता है। यह देखकर अर्जुन दहल उठता है। तब श्री कृष्ण उसे बताते हैं कि कर्ण के घातक अस्त्रों के कारण अर्जुन के रथ में यह विस्फोट हुआ है। यह अब तक इसलिए सुरक्षित था क्योंकि उस पर स्वयं उनकी कृपा थी और श्री हनुमान की शक्ति थी जो रथ अब तक इन विनाशकारी अस्त्रों के प्रभाव को सहन किए हुए था।