बरसात कोई अपराध नहीं

कहर के बीच पहाड़ की जिंदगी का एक दस्तूर इन दिनों हिमाचल में अपनी मौजूदगी का अनुभव करा रहा है। इसे हम बरसाती कहकर अपनी संवेदना को कमजोर करेंगे, जबकि  अस्त-व्यस्त जनजीवन कई ऐसे प्रश्न भी पूछ रहा है जो हमारे विकास के खोखलेपन की दास्तान है। यह इसलिए भी कि प्रगति ने प्रकृति को समझे बिना खिलवाड़ किया, तो इसके गुस्से की लाली नदी-नालों में बहकर हमारे आंगन को समुद्र कर गई। प्रदेश की कोई ऐसी सड़क नहीं, जो जख्मों की बारात न बनी हो या दावों की कोई दुकान नहीं बची, जो बारिश से परेशान न हो। आंकड़ों के खेल में नुकसान के सरकारी अंदाजे उस भयावह मंजर की शिनाख्त नहीं, जो बादलों की ओट में हर साल हमसे रू-ब-रू होता है। हम हर बार विकास की घोषणाओं में नीति और नीयत पर संदेह नहीं करते, जबकि सच यह है कि हर साल की विनाशलीला हमारे वजूद की जांच कर रही है। जरूरतों का दबाव मानवीय प्रवृत्ति का हिसाब है, इसलिए बेहतर चयन की तरफ झुकाव होगा, लेकिन इस धुंध में जीने का क्या फायदा। हर साल विकास का घाटा अगर मौसम पैदा कर रहा है, तो हमारे बचाव की इंद्रियां कहां हैं। क्या हम भूल गए कि पर्वतीय परिवेश में आगे बढ़ने का अर्थ केवल भौतिकवादी होना नहीं है, बल्कि एक संतुलित व्यवहार के मानिंद विकास को सींचना है। बरसाती कहर के परिदृश्य में जो नजर आता है, उसमें उफनती नदियों का विकराल होना या बांध के दरवाजे का खुल जाना, हमारी हैसियत की विवशता क्यों बन रही है। सड़क का बह जाना एक बात है, लेकिन इसके निर्माण का खोखला होना, अधिक भयभीत करता है। क्या हम सार्वजनिक निर्माण विभाग में आर एंड डी पर कभी काम कर पाए या यह सोचा कि धर्मपुर का बस स्टैंड खड्ड है या खड्ड ही बस स्टैंड है। क्यों ऊना के मिनी सचिवालय की छत के नीचे तालाब बनकर योजना की फाइल और कागज की कश्ती में फर्क नहीं रहता। बार-बार पालमपुर के सौरभ वन विहार के आंचल में बाढ़ की पैमाइश हो जाती है या साल की सूखी-प्यासी खड्डें, बरसात में बेचाल हो जाती हैं। सड़क वहीं क्यों टूटती, जहां मंजिल होती है या पहाड़ को अपने होने पर शक है, जो भी हो हिमाचल की योजनाएं-परियोजनाएं सतर्कता पर जो कहती हैं, साल की बुनियाद पर वो बात नहीं होती है। हमारी प्राथमिकताओं में विकास अंकुरित होता है, लेकिन पौधारोपण के लिए कोई मार्गदर्शन नहीं। क्या हमें भरी बरसात में आपातकालीन भयाक्रांत होकर रहना होगा या अंबर को देखकर जीना होगा। कहीं तो मानवीय भूल ने नदियों के किनारों को क्रोधित किया, वरना गर्मियों में यही पानी खेत में होता। बरसात की आपातकालीन परिस्थितियों की तैयारी में शिक्षा विभाग की खुद्दारी देखें या पूछें कि छुट्टियों का कैलेंडर क्यों आंख मिचौनी खेलते हुए यह तय नहीं कर पाता कि कब स्कूल पहुंचना नामुमकिन हो सकता है। यह जांच का विषय है कि छुट्टियों की घोषणा अधिकारियों की सुविधा में वसंत खोजने की मुराद क्यों बन रही है। बरसात का अपना कोई अपराध नहीं, बल्कि हमने अपने कसूर इसके सामने उंडेल दिए। हमारे लिए विकास की ऋतुएं सदाबहार हैं या राजनीति इतनी समझदार हो गई कि फैसले अपनी ही धरती के लिए होते हैं, वरना प्रगति और बीहड़ में कुछ तो अंतर होता। सड़क-भवन निर्माण में कुछ तो अनुसंधान होता। हमें तो यह चिंता है कि किस तरह टीसीपी कानून की टांगें टूट जाएं और इसकी परिधि से निकलकर लोग बेखौफ निर्माण करें। नदी-नालों के मुहानों पर हमारे स्वार्थी विकास की गाद है। प्राकृतिक जल निकासी के मार्ग को अवरुद्ध करने की सजा देखते हुए भी मानव बस्तियों ने खड्डों, नदी-नालों और कूहलों के दायरे घटा दिए, तो प्रकृति का रहट हमें निचोड़ेगा जरूर। बरसात केवल बरसात नहीं, मौसम के वार्षिक चक्र का हिसाब है, इसलिए इसे साल की चिंताओं, वर्षों की योजनाओं और सदियों के संकल्पों में समझना होगा। यह राष्ट्रीय नीतियों का विध्वंसक नजारा भी है क्योंकि जल त्रासदी के सियासी झगड़ों ने यह सोचने की मर्यादा ही पैदा नहीं की कि जब मेघ अपने चक्र को पहाड़ से मिलकर पूरा करे, तो राष्ट्रीय संसाधनों की अंजुलि में आया पानी प्रण करे कि इस सौहार्द को कैसे बचाएं। बादल केवल पानी बनकर नहीं लौटते, बल्कि जीने के एहसास को जिंदा रखने की कसौटी बना देते हैं। भले ही इस प्रक्रिया में पर्वतीय जनजीवन को हर साल अस्त व्यस्त होने की सजा मिले। क्या केंद्र अपने सोच के बादलों को हटाकर कभी यह देखेगा कि जहां तक समुद्र की गहराई है, हिमाचल सरीखे हर पर्वतीय राज्य के अस्तित्व की लड़ाई भी है।