बहस में बरसात

विपक्ष के आक्रोश के बावजूद हिमाचल में बरसात पर कांग्रेस के तेवर विधानसभा में नदारद हैं, तो सवाल उन जिंदगियों का उठेगा जो मौसम के कारण मातम में बदल गईं। बहस में इस समय बरसात का होना उतना ही लाजिमी है, जितना अपने अस्तित्व को ढोना। विडंबना यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि हर अवसर में अपनी शिनाख्त करते हैं, लिहाजा हर गुस्से की सियासी नस्ल है, लेकिन जनता के सवाल इतना शोर नहीं मचाते। हमारे सबक इतने करीब हैं कि मानसून सत्र के हर लम्हे का रिश्ता आम जनता की पैरवी बन सकता है। बहरहाल बरसात के नुकसान में हर तरह की आपदा से निपटने की प्राथमिकताएं दर्ज हों, तो अगले साल को देखने का नजरिया बदलेगा, वरना आंकड़े अपने हिसाब से जिरह ढूंढ लेते हैं। सत्र की ध्रुवीय बहस में राहत के मजमून को समझें, तो सरकार हर संभव प्रयास कर रही है। आपदा प्रबंधन के खाके पर सजी इबारत में भी इतनी तैयारी दिखाई देती है कि एक हद तक हिमाचल अन्य राज्यों से बेहतर स्थिति में है, फिर भी लाक्षणिक उपचार के बजाय, स्थायी दिशा की ओर बढ़ने के फासले दिखाई देते हैं। कम से कम तीन विधायकों राकेश पठानिया, होशियार सिंह तथा परमजीत पम्मी ने बारिश की बर्बादी को चुनौती देने के लिए स्थायी तौर पर इंतजाम करने के कई कारण ढूंढे हैं। यह इसलिए भी कि बरसात को केवल चार माह की तैयारी या पड़ताल में नहीं समझा जा सकता और न ही प्रकृति के व्यवहार को पकड़ना सीमित परिकल्पना है। यह हर वक्त और लम्हे की चुनौती है और इसके आड़े मानवीय व्यवहार, तरक्की के अंजाम और आधुनिकता को ओढ़ने के सिलसिले भी आ रहे हैं। ऐसे में बरसात को बहने से तो रोका नहीं जा सकता, अलबत्ता बहने के माध्यम दुरुस्त किए जा सकते हैं। बड़ी नदियों ने जो उत्पात मचाया, उसके पीछे के नालों और खड्डों की प्रवृत्ति को दुरुस्त करना होगा। पानी को हर दिन की जरूरत में देखें तो हर खड्ड और नाले को एक समान बहना होगा यानी इनकी क्षमता को लगातार बनाए रखने की चुनौती है। क्या हमारी ऊर्जा नीति ने लघु विद्युत परियोजनाओं को प्रकृति के विरुद्ध खड़ा किया या इनके मुहाने अपना बर्ताव भूल गए। बड़ी नदी तो बाढ़ की समीक्षा में आ जाती है, लेकिन असली दर्द तो छोटे जलस्रोतों का है, जिन्हें हमने गांव या खेत की सीमा में पथभ्रष्ट किया। हिमाचल की भौगोलिक परिस्थिति में जल को नदी में आने से पहले जिस निकासी रास्ते से गुजरना पड़ता है, उसे मानवीय गतिविधियों ने विकास के नाम पर रौंद दिया या इसके विपरीत विकास की धाराएं बहने लगीं। इसके अलावा साल भर सूखी रहने वाली खड्डों की शिनाख्त करते हुए इनके तटीकरण की विस्तृत योजना बनानी होगी। मध्यमवर्तीय पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसी कई खड्डें व नाले हैं, जो बरसाती पानी का निकास करते हैं। ऊना की स्वां नदी के अलावा मंडी, बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा, सोलन व सिरमौर जिलों में ऐसी अनेक खड्डों व छोटी नदियों के तटीकरण को बाढ़ संरक्षण कार्यक्रम के तहत प्राथमिक बनाना होगा, अन्यथा बरसात में इनके किनारे घरों तक घुसते रहेंगे या बड़ी नदियों के वेग को बढ़ाएंगे। इसी के साथ चैक डैम व जल संग्रहण के पारंपरिक तरीकों को भी अपनाना होगा। बरसात के बाद और मानसून के आने से पहले डीसिल्टिंग का भी एक विस्तृत आकार तय करना पड़ेगा, ताकि हर चैक डैम तथा खड्डों की गहराई वार्षिक बारिश की निकासी कर सके। बाढ़ बचाव के उपायों के बीच ग्रामीण तथा शहरी विकास मंत्रालयों को मानव बस्तियों के प्रसार के दिशा-निर्देश निर्धारित करने होंगे। जिस टीसीपी कानून को प्रायः खुर्दबुर्द करने की मंशा जनप्रतिनिधि जाहिर करते हैं, दरअसल उसे राजनीतिक नकाब हटाकर देखने की जरूरत है।