भक्त की मुक्ति

बाबा हरदेव

भक्त का कहना है कि यह मुक्ति को छोड़ने को तैयार है, मगर भगवान को छोड़ने के लिए किसी भी सूरत में तैयार नहीं है। सच तो यह है कि मुक्ति भाषा ही भक्त की नहीं है। भक्त मुक्ति मांगता ही नहीं है और मजे की बात यह है कि भक्त मुक्त हो जाता है।  भक्त की मुक्ति निश्चित है, लेकिन यह भक्ति और मुक्ति पर्यायवाची शब्द हैं। भक्ति में मुक्ति सम्मिलित है। जैसे सूरज और धूप इकट्ठे हैं। अगर सूरज है तो धूप जरूर है। अतः सूरज के लिए अगर हम द्वार खोल दें, तो धूप अपने आप प्रविष्ट कर जाती है। संपूर्ण अवतार बाणी का भी फरमान है। सूरत हनेरे दे विच रहसी जद तक रब दा नूर नहीं चानण साडे अंग संग वसदा एह रब साथों दूर नहीं अब सवाल पैदा होता है कि मुक्ति क्या है? तथाकथित उपासक के लिए और भक्त के लिए? महात्मा फरमाते हैं कि भक्त के अतिरिक्त जो आम तथाकथत उपासक है, इनके लिए मुक्ति ऐसी घड़ी का आ जाना है, जहां दूसरा न रह जाए, स्वयं का होना ही अत्यांतिक हो जाए, आखिर हो जाए। महावीर जी ने इस अवस्था को ‘कैवल्य’ कहा है, जहां एकमात्र चेतना बचे या आत्मा बचे, यानी आत्मा की परम स्थिति, आखिरी ऊंचाई जिसके ऊपर और ऊंचाई नहीं, जबकि भक्त कहता है कि ऐसी घड़ी आ जाए कि प्रभु! ‘तू ही तू’ रह जाए ‘मैं’ न रहूं। पूर्ण सद्गुरु की कृपा द्वारा भक्त भली प्रकार समझने लग जाता है कि ‘मैं’ ही तो उपद्रव हूं, मैं मिट जाऊं तू ही रह जाए यही भक्त के परम जीवन की ‘कीमिया’ है। वाक्या यह दोनों आलम में रहेगा यादगार जिंदगानी मैंने हासिल की है, मर जाने के बादइधर कबीर जी फरमाते हैं तू-तू करता तू भया मुझ में रहा न हूं आपा परका मिट गया जित देखूं  तित ‘तू’ अतः भक्त का मत है कि बेशक बांधने वाला प्रभु का बंधन इसे हजार-हजार, रंग-रूपों में बांध ले, लेकिन बंधने वाला भक्त न रहे यह प्रभु में लीन हो जाए, मानो भक्त अपने आपको मिटाना चाहता है भगवान में। इसके विपरीत जो तथाकथित उपासक हैं, वो भगवान को मिटा लेना चाहते हैं अपने में। अब भक्त की भी ‘मुक्ति’ फलत होती है, मगर यह बड़ी अनूठी है, इस मुक्ति में भक्त खो जाता है भगवान ही बचता है।  उनसे मिलकर मैं उन्हीं में खो गया और जो कुछ है वो आगे राज है भक्त की सदा इच्छा होती है कि परमात्मा ही परमात्मा रह जाए और यह स्वयं खो जाए। भगवान को खोकर तो भक्त कभी मुक्ति मांग ही नहीं सकता, यह बात भक्त को नहीं, क्योंकि भक्त भली प्रकार जानने लग जाता है कि ‘आचरण’ और मुक्ति से आत्मा निर्मल नहीं होती है। आत्मा से आचरण और मुक्ति प्रवाहित होते हैं। अब शास्त्रों में लिखा है कि जब तक दो हैं, तब तक तो संसार रहेगा द्वैत रहेगा, जबकि मुक्ति के लिए अद्वैत अनिवार्य है और मुक्ति के लिए अद्वैत दो ढंग का हो सकता है या तो भगवान मिटे या फिर भक्त मिटे। अब बुद्धि से शास्त्र पढ़ने और सोचने  के कारण तथाकथित उपासक का मन चाहेगा कि भगवान ही मिटे। अर्थात मुझे मोक्ष मिल जाए। वह आप खुद न मिटे। मगर यह बड़े अहंकार की भावदशा है। अतः हठयोग, तथाकथित तपश्चर्या तीर्थयात्रा, व्रतनेम के बलबूते पर मुक्ति को उपलब्ध होने का विचार इसी प्रकार की भावदशा का ही परिणाम है और नास्तिकता का प्रतीक है, मगर भक्त को यह बात किसी भी सूरत में जचती नहीं है। गुरसिख वी नहीं ओ जो समझे करनी गुरु रिझाएगी तीथै व्रत नेम दे बदले रूह एह मुक्ति पाएगी।