योगः अनंत से एकत्व

श्रीश्री रवि शंकर

योग के विषय में सामान्यतः एक गलत धारणा है कि यह एक प्रकार का शारीरिक व्यायाम है। संसार भर में अनायास ही लोग मुझसे अकसर यही प्रश्न पूछ बैठते हैं। आसन या शारीरिक मुद्राएं लोगों को योग में प्रवेश करने के लिए सहायक होते हैं। योग का विज्ञान बहुत विस्तृत और गहन है। योग की मुख्य शिक्षा मन को समभाव बनाए रखना है। अपनी संपूर्ण चेतना के साथ कार्य करना, अपने कार्यों के प्रति पूर्ण जागरूकता रखना आपको योगी बनाता है। अस्तित्वगत पदार्थों को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध तरीके से समझना ही विज्ञान है। इसी प्रकार से योग भी एक विज्ञान है, जो विषय के लिए एक व्यवस्थित समझ प्रदान करता है। यह क्या है? जानना विज्ञान है। मैं कौन हूं? यह जानना आध्यात्मिकता है। योग का अर्थ जीवन में लयात्मकता लाना है। यह अंतर्दृष्टि के अध्ययन और सामंजस्य बनाने की विधा है। यह स्वस्थ जीवन कौशल किसी के जीवन और परिवेश की गुणवत्ता को बढ़ा सकता है। यह आंतरिक शक्ति और बाह्य सामंजस्य में सुधार लाता है। योग किसी के व्यक्तित्व में पूर्ण संतुलन ला सकता है। योग लोगों के व्यक्तित्व में पूर्ण संतुलन लाता है, यह जीवन की जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान करता है। यह उन बहुत सी समस्याओं का समाधान है जिसकी तलाश आज के व्यवहार विज्ञान में की जा रही है। परम सत्य की खोज करने वालों के लिए योग एक ऐसा मार्ग है, जो साधक को मानव क्षमता की संपूर्णता प्राप्त करने की अनुभूति प्रदान करता है, यह एक ऐसा रास्ता है जो मनुष्य को अनंत के साथ एकाकार होने का उच्चतम ध्येय प्राप्त करने में सहयोग करता है। योग सूत्र विस्तार रूप में नहीं लिखे गए हैं, इन सूत्रों में योग का संपूर्ण दर्शन बहुत ही संक्षिप्त रूप में समाहित किया गया है, इन सूत्रों को किसी विशेषज्ञ गुरु के निर्देशन से ही समझा जा सकता है। जब कोई व्यक्ति अभ्यास के द्वारा आत्मा की चेतनता की गहराइयों में उतरता है तो ये सूत्र उसके लिए दिशानिर्देशक और मील के पत्थर के समान कार्य करते हैं। अपने स्थूल रूप में भी योग मानव जीवन को अकल्पनीय रूप से परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। यहां तक कि यदि लोग आसनों को केवल शारीरिक व्यायाम के रूप में करना शुरू करते हैं तब भी यह एक उत्साहवर्द्धक लक्षण है। महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंग बताए हैं। बहुत से लोग प्रायः समझते हैं कि ये अष्टांग योग के क्रमबद्ध आठ चरण हैं। तथापि ये अंग क्रमिक नहीं है, बल्कि ये मानव शरीर के समान एक संपूर्ण पद्धति के आठ भाग हैं। संपूर्ण शरीर एक साथ विकसित होता है। शरीर के सारे अंग एक साथ ही विकसित होते हैं, परंतु वे सब अपनी-अपनी गति से बढ़ते हैं। महर्षि पतंजलि यह भी कहते हैं कि योग का उद्देश्य कष्टों के आने से पूर्व ही उनका निराकरण करना है। चाहे वह लोभ, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या या हताशा कोई भी नकारात्मक भावना हो, उसे योग के माध्यम से समाप्त अथवा परिवर्तित किया जा सकता है। जब हम प्रसन्न होते हैं, तो अपने भीतर कुछ है जिसके विस्तार का हम अनुभव करते हैं। जब हम असफल होते हैं अथवा जब कोई हमारा अपमान करता है, तो हमें भीतर कुछ संकुचित होने का अनुभव होता है। योग हमारे भीतर इस कुछ को खोजने में हमारी सहायता करता है।