विवाद से परे है ईश्वर का अस्तित्व

मन एक पराधीन उपकरण है – वह किसी दिशा में स्वेच्छापूर्वक दौड़ नहीं सकता। उसके दौड़ाने वाली सत्ता जिस स्थिति में रह रही होगी, चिंतन की धारा उसी दिशा में बहेगी। मन को दिशा देने वाली मूल सत्ता का नाम आत्मा है। दूसरे प्रश्न में जिज्ञासा है कि माता के गर्भ में पहुंचने पर प्रथम प्राण कौन स्थापित करता है? उसमें जीवन-संचार के रूप में हलचलें कैसे उत्पन्न होती हैं? रक्त-मांस तो जड़ हैं। जड़ में चेतना कैसे उत्पन्न हुई? …

-गतांक से आगे….

अर्थात मन किसकी प्रेरणा से दौड़ाया हुआ दौड़ता है? किसके द्वारा प्रथम प्राण-संचार संभव हुआ? किसकी चाही हुई वाणी मुख बोलता है? कौन देवता देखने और सुनने की व्यवस्था बनाता है?  मन अपने आप कहां दौड़ता है?

आंतरिक आकांक्षाएं ही उसे जो दिशा देती हैं, उधर ही वह चलता है, दौड़ता है और वापस लौट आता है। यदि मन स्वतंत्र चिंतन में समर्थ होता तो उसकी दिशा एक ही रहती। सबका सोचना एक ही तरह होता, सदा-सर्वदा एक ही तरह का चिंतन बन पड़ता, पर लगता है – पतंग की तरह मन का उड़ाने वाला भी कोई और है, उसकी आकांक्षा बदलते ही मस्तिष्क की सारी चिंतन-प्रक्रिया उलट जाती है। मन एक पराधीन उपकरण है – वह किसी दिशा में स्वेच्छापूर्वक दौड़ नहीं सकता। उसके दौड़ाने वाली सत्ता जिस स्थिति में रह रही होगी, चिंतन की धारा उसी दिशा में बहेगी। मन को दिशा देने वाली मूल सत्ता का नाम आत्मा है। दूसरे प्रश्न में जिज्ञासा है कि माता के गर्भ में पहुंचने पर प्रथम प्राण कौन स्थापित करता है? उसमें जीवन-संचार के रूप में हलचलें कैसे उत्पन्न होती हैं? रक्त-मांस तो जड़ हैं। जड़ में चेतना कैसे उत्पन्न हुई? यहां भी उत्तर वही है – यह आत्मा का कर्तृत्व है। भू्रण अपने आप में कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं। माता-पिता की इच्छानुसार संतान कहां होती है? पुत्र चाहने पर कन्या गर्भ में आ जाती है। जिस आकृति-प्रकृति की अपेक्षा, उससे भिन्न प्रकार की संतान जन्म लेती है। इसमें माता-पिता का प्रयास भी कहां सफल हुआ, तब भ्रूण को चेतना प्रदान करने का कार्य कौन करता है? उपनिषदकार इस प्रश्न के जवाब में आत्मा के अस्तित्व को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करता है। मृत शरीर में प्राण संचार न रहने से उसके भीतर वायु भरी होने पर भी सांस को बाहर निकालने की सामर्थ्य नहीं होती। श्वास-प्रश्वास प्रणाली यथावत रहने पर भी प्राण-स्पंदन नहीं होता। प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान प्राणों द्वारा शरीर और मन के विभिन्न क्रियाकलाप संचालित होते हैं, पर महाप्राण के न रहने पर शरीर में उनका स्थान और कार्य सुनिश्चित होते हुए भी सब कुछ निश्चल हो जाता है। अंगों की स्थिति यथावत  रहते हुए भी जिस कारण मृत शरीर जड़वत निःचेष्ट हो जाता है, वह महाप्राण का प्रेरणा क्रम रुक जाना ही है।  

(यह अंश आचार्य श्री राम शर्मा द्वारा रचित किताब ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं)