विवाद से परे है ईश्वर का अस्तित्व

अमृतत्व का प्राप्त होना इसी परिष्कृत दृष्टिकोण को अपनाने के साथ जुड़ा हुआ है। हम हैं और इंद्रियों को प्रेरणा देने वाले हैं – इंद्रियों के कारण हम चैतन्य नहीं, वरन हमारे कारण इंद्रियों में चेतना है, यह जान लेने पर आत्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष हो जाता है। आत्मा पर मल आवरण विक्षेप के कषाय-कल्मष चढ़ जाने से वह मलीन बनता है और दीन, दयनीय दुर्दशाग्रस्त परिस्थिति में पड़ा-जकड़ा दुःख भोगता है…

-गतांक से आगे….

यहां अमृतत्व का अर्थ है – अनंत जीवन की मान्यता और तदनुरूप दृष्टिकोण अपनाकर, तदनुरूप चिंतन एवं कर्तृत्व का निर्धारण लोग अपने को मरणधर्मा मानते हैं, तात्कालिक लाभों को अवांछनीय होते हुए भी उन्हें ही सब कुछ समझकर टूट पड़ते हैं और भविष्य को भूलकर उसे अंधकारमय बनाते हैं। खाओ, पियो, मौज उड़ाओ। कर्ज लेकर मद्यपान करते रहो की नीति अपनाकर लोभ, मोह में ग्रसित वासना, तृष्णा के लिए आतुर मनुष्यों का दृष्टिकोण मरण-धर्मा है। उसे अपनाने वाले जीवित मृतक हैं। इसके विपरीत जो अनंत जीवन का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए आज कष्ट उठाने की तपश्चर्या का स्वागत करते हैं, वे दूरदर्शी विवेकवान अमर कहलाते हैं। अमृतत्व का प्राप्त होना इसी परिष्कृत दृष्टिकोण को अपनाने के साथ जुड़ा हुआ है। हम हैं और इंद्रियों को प्रेरणा देने वाले हैं – इंद्रियों के कारण हम चैतन्य नहीं, वरन हमारे कारण इंद्रियों में चेतना है, यह जान लेने पर आत्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष हो जाता है। आत्मा पर मल आवरण विक्षेप के कषाय-कल्मष चढ़ जाने से वह मलीन बनता है और दीन, दयनीय दुर्दशाग्रस्त परिस्थिति में पड़ा-जकड़ा दुःख भोगता है। मलीनता की इन आवरण-परतों को उतार फेंकने पर उसका निर्मल स्वरूप प्रकट होने लगता है। दर्पण पर जमी हुई धूलि हटा देने से उसमें अपना प्रतिबिंब सहज ही देखा जा सकता है। आत्म-साक्षात्कार इसी का नाम है – इसे ही परमात्मा का दर्शन एवं परब्रह्म की प्राप्ति कहते हैं। आंखों से किसी देवावतार के स्वरूप को देखने की लालसा एक भ्रांति मात्र हैं – जिसका पूरा हो सकना संभव नहीं। ईश्वर को चर्म-चक्षुओं से नहीं, ज्ञान चक्षुओं से ही देखा जा सकता है। आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है। जीवात्मा, वह जो लोभ, मोह से – वासना, तृष्णा से प्रभावित होकर स्वार्थपरता एवं संकीर्णता के बंधनों में जकड़ा पड़ा है। अपना चिंतन, कर्तृत्व शरीर और कुटुंब के भौतिक लाभों तक सीमित रखने वाला भव-बंधनों में जकड़ा जीव है। मुक्त उसे कहा जाएगा जिसने अपनेपन की, आत्मभाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत बना लिया है, जिसके लिए समस्त विश्व अपना परिवार है। समस्त प्राणी जिसके अपने कुटुंबी हैं। औरों के दुख को अपना दुख मानकर, जो उसके निराकरण का प्रयास करता है। औरों को सुख देकर सुखी होता है। 

(यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)