विवेक चूड़ामणि

गतांक से आगे…

अंधत्वमंदत्वपटुत्वधर्मा:

सौगुण्यैवैगुण्यवशाद्धि चक्षुसः।

बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव श्रोतादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः।।

नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अंधापन, धुंधलापन अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों के ही धर्म हैं, इसी प्रकार बहरापन, गूंगापन आदि भी श्रोतादिक के ही धर्म हैं, सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं।

उच्छावासनिः यवासविजृंभणक्षुत प्रस्पंदनाद्युत्क्रमणादिकाः क्रियाः।

प्राणादिकर्माणि: वदंति तञ्ज्ञाः प्राणस्य धर्मावशपनापिपासे।।

श्वास-प्रश्वास, जम्हाई, छींक, कंपना और उछलना आदि क्रियाओं को तत्त्वेत्तार तत्त्व को जानने वाले प्राणादि का धर्म बतलाते हैं। भूख और प्यास भी प्राण ही के धर्म हंै।

अंतःकरणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि। अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा ।।

शरीर में इन चक्षु आदि इंद्रियों ( इंद्रिय के गोलकों) में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अंतःकरण ‘मैं-पन’ का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है।

अहंकारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्यमम। सत्त्वादिगुणयोगेन चावस्थात्रयमश्नुते।।

इसी को अहंकार समझना चाहिए। यही कर्ता, भोक्ता तथा मैं-पन का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं  को प्राप्त

होता है।

विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यवे।

सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानंदस्य नात्मनः।।

विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दुःखी होता है। सुख और दुःख इस अहंकार के ही धर्म हैं नित्य आनंदस्वरूप आत्मा के नहीं।

आत्मार्थत्वेन हि प्रेयान विषयो न

स्वतः प्रियः ।

स्वत  एव हि सर्वेषामात्मा

प्रियतमो यतः।।

विषय स्वतः प्रिय नहीं होते,वे आत्मा के लिए ही प्रिय होते हैं, क्योंकि सहजरूप से प्रियतम तो सबका आत्मा ही है। 

तत अरत्मा सदानंदो नास्य दुःखं कदाचन यत्सुषुप्तौ निर्विष्य आत्मानंदोऽनुभूयते।

श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं

च जाग्रति।।

इसलिए आत्मा सदा आनंदस्वरूप है, इसमें कभी दुःख नहीं है। तभी तो सुषुप्ति में विषयों का अभाव रहते हुए भी आत्मानंद का अनुभव होता है। इसकी पुष्टि श्रुति, प्रत्यक्ष ऐतिह्य (इतिहास) और अनुमान आदि प्रमाणों द्वारा होती है।

अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति रनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा।

कार्यानुमेर्या सुधियैव माया यया जगत्सर्वमिंद  प्रसूयते।।

अव्यक्त नाम तथा तीन गुणों वाली अनादि अविद्या ही परमेश्वर की परा शक्ति है। इसे ही माया कहते हैं। इससे ही यह सारा जगत उत्पन्न हुआ है। बुद्धिमान इसके कार्य ये ही इसका अनुमान करते हैं ( कार्य से कारण अनुमान)।

सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो।

संगाप्यनंगप्युभयात्मिका नो महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा।।

यह न सत् है, न असत् है और न उभयरूप है, न भिन्न है, न अभिन्न है, न अंगसहित है, न अंगरहित है और न उभयात्मिका ही है, किंतु अत्यंत अद्भुत और अनिर्वचनीयरूपा (जिसके बारे में निश्चित रूप से कुछ न कहा जा सके )।

                              – क्रमशः