विष्णु पुराण

यस्मिन्प्रतिष्ठितो भास्वान्मेधीभूता स्वयं ध्रुवं।

धु्रवेच सर्वज्योतिषि ज्योतिः ष्वम्भोभूचो द्विजः।

मेघेषु सङ्गता वृष्टिर्वृष्टेः मृष्टेश्च पोषणम्।

आप्यायन च सर्वेषां देवादीनां महामुने।

ततश्चाज्याहुतिद्वारा पोषितास्ते हर्विर्भुजः।

वृष्टेः कारणातां यांति भूतानां स्थितये पुनः।

एवमेतत्पद विष्णोस्तृतीयममलात्मकाम्।

आधारभूत लोकानां त्रयाणं वृष्टिकारणम्।

ततः प्रभवति ब्रह्मन्सर्वपापहरा सरित्।

गङ्गा देवाङ्गनामनुले निपिजरा।

वामपादाम्बुर्जागुश्ठान खस्रौतोविनिर्गताम्।

विष्णोविभर्ति या भक्त्या शिरसाहर्निशं धु्रव।

हे द्विज! उसी विष्णु पद में सबके आश्रयभूत अत्यंत तेजस्वी धु्रव की स्थिति है और धु्रव में सब नक्षत्र स्थित है। नक्षत्रों मंे मेघ तथा मेघों में वृष्टि आश्रय लिए हुए है। इसी दृष्टि के द्वारा सृष्टि का पोषण होता है तथा वही सब देवता मनुष्यादि प्राणियों को पुष्ट करती है। फिर देवादि प्राणियों से उत्पन्न दूध, घी आदि की आहुतियों से तृप्त हुए अग्नि ही प्राणियों का पालन करने के लिए पुनः वृष्टि कारक होते हैं।

इसी प्रकार भगवान विष्णु का तीसरा लोक ही तीनों लोकों का आधार भूत तथा वर्षा आदि करने वाला है। हे ब्रह्मण! इसी विष्णुपद से देवांगनाओं अङ्गराय के मिश्रण से पांडु वर्ण की सी होकर सब पापों को नष्ट करने वाली सरिता गंगाजी प्रकट हुई है। भगवान विष्णु के बाएं चरण कमल अंगुष्ठ नखरूपी स्रोत से निर्गत उन गंगाजी को धु्रव अजर्निशि अपने शिर पर धारण किए रहता है।

ततः सप्तर्षेयो यस्याः प्राणायामपराणाः

तिष्ठन्ति बीचिमालाभिरुह्यमानजटा जले।

वार्योधः संततैर्यस्यां प्लावितं शशिमंडलम्।

भर्योऽधिकतरां कांति वहत्वेतदुह क्षये।

मेरुपृष्ठे पतत्पुज्चैर्निष्क्रांता शशिमंडलात्।

जगतः पाननार्थाय प्रयाति च चतुर्दिशम्।

सीमा चालकनन्दा यस्याः सर्वोऽपि दक्षिणाम्।

दधार शिरसा प्रीत्या वर्णाणा

मधिकं शतम्।

शम्भोर्जटाकलाच्च विरिष्क्रांतास्थिशर्कराः।

प्लावयित दिवं निन्ये या पापान्सगरात्मजान्।

फिर उनके जल में स्थित हुए, प्राणायाम परायण सप्तर्षि उनकी तरंगों से जटाओं के कम्पित होते हुए भी पापों का मर्दन करने वाले को जपते रहते हैं और जिनकी गहन जल राशि से आप्लावित हुआ चंद्र मंडल क्षीण होने के पश्चात अधिक कांतिवान हो जाता है, वे गंगाजी उस चंद्रमंडल से निकल कर मेरे पर्वत पर गिरती हुई जगत को पवित्र करने के लिए चारों दिशाओं को गमन करती है। चार दिशाओं में जाती हुई एक ही गंगाजी चार धाराओं के रूप में होकर सीता, अलकनंदा चक्षु और भद्र कही जाती है, जिनकी अलकनंदा नामक दक्षिणीय धारों को शिवजी ने सौ वर्ष से भी अधिक समय तक अपने मस्तक पर प्रीति सहित धारण किया था, जिसने उन शिवजी की जटाओं से निकल कर पाप कर्मा सगर पुत्रों की हड्डियों चूरत को आप्लावित कर उन्हें स्वर्ग प्राप्त करा दिया था।