हल्ला मचाओ और सब पा जाओ

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

हल्ला मचाने वाले के बेर बिकते हैं। चीख जितनी तीखी होगी, असर उतना ही पुरजोर होगा। वैसे भी जिधर देखो, उधर शोर हो रहा है। ध्वनि प्रदूषण से न संसद बच पा रही है और न राज्यों की विधानसभाएं। हल्ला मचाकर बात मनवाना हमारा नया कल्चर है। जो लोग चीख नहीं पाते, वे कमजोर और दब्बू हैं। हमारे राजनेता इस मामले में सबसे अग्रणी हैं। सारे ऐब व दोषी पाए जाने के बाद भी इतना चीखते हैं कि उनके अपराध गंगाजल की तरह पवित्र हो जाते हैं। वे बेवकूफ  थोड़े ही हैं, जो बेकार में चीखेंगे। हल्ला मचाकर वे किसी सरकार को गिरा सकते हैं अथवा अपनी बेसुरी चिल्ल-पों से किसी का इस्तीफा झटक लेते हैं। किसी की जांच करवानी हो, किसी विधेयक को पास नहीं करवाना हो, तिल का ताड़ बनाना हो, विधानसभा की कार्यवाही ठप्प करनी हो, सत्ता पक्ष को सुनना हो और खुद पर आंच गिर रही हो, तो हल्ला मचाओ। कुल मिलाकर काम न तो करो, न करने दो और खामख्वाह हल्ला मचाओ। चुनाव में जीत जाओ तो हल्ला मचाओ और हार जाओ, तो हल्ला मचाओ। सरकार को एक काम करते एक महीना हो जाए तो, सरकार की विफलताओं को लेकर, उल्टा-सीधा बयान मुंह से निकल जाए तो, महिला आरक्षण विधेयक में कमी हो तो, गरीबों के लिए कोई योजना शुरू करो तो, अच्छा बजट बना हो तो, मंत्री नहीं बनाओ तो, मुख्यमंत्री बनते-बनते रह जाओ तो, मनपसंद जांच आयोग न हो तो और जब तक रिपोर्ट नहीं आ जाए तब तक हल्ला मचाओ। मेरे घर में भी हालात यही हैं। मेरा बच्चा कुछ तो कामचोर और प्रमादी है। काम-काज करने को कहो तो हल्ला मचाकर वह अपनी बेजा बात मनवा लेता है। रोटी-सब्जी खाएगा, तो उनको बेस्वाद बताकर, नहाएगा-धोएगा, खाएगा-पीएगा, सोएगा-जागेगा तो हल्ला मचाएगा। घर में पढ़ने की कहो तो, अच्छी संगत में बैठने की कहो तो, सावधानी से रहने को कहो तो हल्ला मचाएगा। मैं बेवजह और बेवक्त कभी भी हल्ला मचा सकता हूं। मेरी इस रचना से फर्क पड़ा तो हल्ला मचाइए।