उपचुनाव उवाच

चुनाव प्रचार के बीच मैं यानी धर्मशाला विधानसभा क्षेत्र पूरे हिमाचल की निगाहों से कांगड़ा व अपनी निगाहों से नेताओं को देखूंगा। भाजपा ने मेरे चुनावी नसीब के साथ कांगड़ा के फ्रेम को बड़ा करते हुए विपिन परमार को जिम्मेदारी सौंपी है। बेशक जिला के बाकी मंत्री भी मेरी झोली में न जाने क्या कुछ डालें, लेकिन मुझे इंतजार रहेगा कि मैं अपने चुनावी परिणाम से कांगड़ा को आगामी नेता दे दूं। कमोबेश दोनों पार्टियों के लिए कांगड़ा का प्रतिनिधित्व करता कोई बड़ा नेता नहीं है और न ही शांता कुमार ने अपने उत्तरदायित्व से भाजपा को ऐसा चेहरा दिया। उनकी सीमा राजीव भारद्वाज तक रही, लिहाजा सोशल मीडिया में उनसे नाखुश लोगों की भीड़ बढ़ रही है। क्या मैं मान लूं कि विपिन परमार आगे चलकर कांगड़ा के शांता कुमार होंगे। मुझे तो कोई शक नहीं, लेकिन मेरे पास खड़ा धर्मशाला का जोनल अस्पताल गर्दन हिलाते हुए नहीं मानता। इसे डिस्पेंसरी बना देने का दोष किसे दूं, जबकि टांडा  का मेडिकल कालेज भी अपने मरीजों को बिस्तर तक नहीं दे पा रहा। खैर नेता को कौन से एक ही विभाग में रहना, कल वह और दो चार पकड़ लेंगे, लेकिन यह तभी संभव है अगर उनकी पकड़ में कांगड़ा अपनी रीढ़ पर खड़ा हो जाए। मेरे चुनाव में पाठक जरूर यह देखें कि कांगड़ा के किस मंत्री की रीढ़ सबसे मजबूत है। ऐसा नहीं है कि कांगड़ा में सभी नेता रीढ़विहीन रहे। मेजर विजय सिंह मनकोटिया का नाम याद होगा। उन्होंने कई बार अपनी रीढ़ को सीधा किया, तो वीरभद्र सिंह भी कांप गए, लेकिन पार्टियां बदलते-बदलते न उनके पक्ष का पता चलता और न ही विपक्ष का। मुझे कई बार लगा कि बंदे में दम है, तो कांगड़ा में दम है, लेकिन वह सिमट गए वीरभद्र सिंह की गोपनीय रिकार्डिंग करते-करते। डा. राजन सुशांत दूसरे ऐसे नेता थे, लेकिन आजकल पता नहीं किस पार्टी में हैं। यह शख्स भी आग का दरिया था, लेकिन खुद ही झुलस गया, वरना कांगड़ा का दिल तो बार-बार उनके व्यक्तित्व पर आया। कांगड़ा का दिल तो जीएस बाली पर भी आया, लेकिन महोदय की रफ्तार एचआरटीसी से भी आगे रही और वह अपनी पार्टी से कहीं अधिक भाजपा के एक पक्ष में स्वीकार्य हो गए। कांग्रेस में ही कांगड़ा से प्रो. चंद्र कुमार का रुतबा एक बहुत बड़े तबके को प्रभावित करता रहा और इसीलिए वह शांता कुमार की टक्कर में ओबीसी की आवाज बने, लेकिन परिवारवाद के दायरे में सिमट गए। ओबीसी वर्ग की वास्तविक ज्वाला, धवाला के आरोहण से दिखाई दी। यही वह शख्स था जिसे पाकर वीरभद्र सरकार बना गए, तो दूसरे पल धूमल इन्हें अपनी सरकार में आजमा गए। विडंबना यह है कि ओबीसी का यह बड़ा चेहरा जयराम सरकार में मंत्री नहीं रहा, तो संगठन के एक नेता के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा पार्टी को सिरदर्द दे रहा है। धूमल सरकार में कांगड़ा की ओहदेदारी का प्रभुत्व रविंद्र सिंह रवि को मिला, लेकिन संतुलन के अभाव में इस शख्स ने भी अवसर गंवा दिया। कांगड़ा के नेताओं का व्यवहार स्व. वाईएस परमार के वक्त से ही केंचुए की तरह रहा। स्व. पंडित सालिग राम करीब-करीब मुख्यमंत्री बन चुके थे, लेकिन इसी इतिहास में अपनी भूमिकाओं में सत महाजन से संतराम तक का खोट परिलक्षित होता है। मेरे उपचुनाव में फिर कांगड़ा उतावला है, बल्कि चुनावी भूकंप ने पालमपुर के केंद्र में पत्र बम फोड़ कर बता दिया कि भाजपा के भीतर क्या है। मेजर मनकोटिया के आक्रोश से सचेत हुए वीरभद्र का कांगड़ा पर दिल पसीजा, तो राजन सुशांत जैसे नेताओं की मंडली से सतर्क हुए धूमल की भूमिका ने कांगड़ा में नेताओं की एक लंबी पीढ़ी बसा दी। देखना यह है कि फिर कांगड़ा की राहों पर जयराम सरीखे मुख्यमंत्री का दिल किस पर आता है।

नेताओं की शरण में

कलम तोड़