एक चिंतन पुरस्कार के लिए

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

जब से फाउंडेशन ने राज्य के साहित्यकारों के लिए पचास हजारी पुरस्कार की घोषणा की है, तब से लिखने-पढ़ने से संन्यास ले चुके लोग भी अपनी कलम-कूंची को झाड़-पोंछकर लिखने के उपक्रम में लगे हैं। एक मोटी राशि ने उनका साहित्यकार जगा दिया है तथा आम आदमी, सर्वहारा का दर्द तथा प्रगतिवादी चेतना को भूलकर अर्थवादी जाल में फंसे दिखाई देने लगे हैं। वैसे साहित्यकार कह यही रहे हैं कि वे इस सेठिया पुरस्कार को नहीं लेंगे, लेकिन पर्दे के पीछे लेने के पूरे जोड़-तोड़ बैठा रहे हैं। फाउंडेशन के इस पुरस्कार से राज्य अकादमी के पुरस्कारों का महत्त्व अपने आप घट गया है। क्योंकि पुरस्कार प्रतिभा के नहीं, आर्थिक चेतना पर केंद्रित हो गए हैं। इधर फाउंडेशन ने राज्य के साहित्यकारों को अपने यहां से दूसरे साहित्यकार का नाम पुरस्कार के लिए भेजने के प्रस्ताव-पत्र भेजे, उधर हर साहित्यकार के मन में एक विचार ने अंगड़ाई ली कि, ‘क्यों नहीं मैं ही ले लूं ?’ इस तर्ज पर सबने अपने पास आए प्रस्ताव-पत्रों पर अपना ही नाम प्रस्तावित कर भिजवा दिया। किसी-किसी ने यह सावधानी बरती कि प्रस्ताव दूसरों के नाम से भिजवाए। यह धारणा साहित्यकारों में पुष्ट होती जा रही है कि दूसरा उनके लिए कुछ नहीं करेगा। जो कुछ करना है स्वयं उनको करना है, इसलिए वे पुरस्कार के लिए अपने आप मिलने के इंतजार में नहीं हैं, अपितु वे स्वयं इसके लिए प्रयत्नशील हो गए हैं। सबसे बड़ी समस्या फाउंडेशन के सामने यह खड़ी हो गई है कि वह पुरस्कार किसे दे? राज्य के सभी तीन सौ साहित्यकारों ने अपने-अपने नाम भिजवा दिए हैं, इसलिए यह तय करना प्रस्तावों के आधार पर जटिल हो गया है कि किसी एक पर सर्वसम्मत निर्णय कैसे लिया जाए? सबने अपने नाम भेजे हैं, इसलिए केवल प्रस्तावों के आधार पर तो निर्णायक हल निकाल पाना मुश्किल हो गया है। इधर हर साहित्यकार का मन इस बात के लिए आशान्वित है कि उसे तैयार रहना चाहिए, पता नहीं उसे ही पचास हजार का पुरस्कार मिल जाए। कई एक साहित्यकारों को इस बात की पीड़ा है कि चाहे किसी ‘ऐरे गैरे नत्थू खैरे’ को पुरस्कार मिल जाए, लेकिन, मुझे नहीं मिलना चाहिए। इसके लिए वे भांति-भांति के उपाय कर रहे हैं। उन्हें सबसे ज्यादा खतरा मुझसे है। हालांकि मुझ में ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन मुझे अनेक साहित्यिक लाभ सहज ही मिलते गए हैं, अतः उनके मन में यह आशंका घर कर गई है कि यह भी कहीं मुझे ही न मिल जाए। इसके लिए वे जाली नामों से मेरे खिलाफ  वहां वातावरण खराब कर रहे हैं। शायद फाउंडेशन ने तो यह सोचा भी नहीं होगा कि उसे यह दिन भी देखने पड़ेंगे। लेकिन होनी को कौन टाले? सिवाय ऊल-जुलूल पत्र आने के, फाउंडेशन में कोई रचनात्मक डाक आती ही नहीं। एक-दूसरे के खिलाफ  आरोप भरे पत्र आते रहते हैं। इसके देखते यह भी लगता है कि कहीं फाउंडेशन को इस पुरस्कार को बंद करने का निर्णय नहीं लेना पड़े, बना बनाया खेल बिगड़ जाएगा।