गांधी आज भी प्रासंगिक

अजमत उला खान

स्वतंत्र लेखक

आज पूरी दुनिया गांधी जी का 150 वां जयंती वर्ष मना रही है। वे दुनिया के एक मात्र नेता हैं जिनका दो अक्तूबर का जन्मदिन॒संयुक्त राष्ट्र संघ॒के सभी 142 सदस्य देश॒अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस॒के तौर पर मनाते हैं। ये देश॒अहिंसा दिवस॒इसलिए नहीं मनाते कि वे महात्मा गांधी और उनकी अहिंसा में भरोसा करते हैं, बल्कि॒अहिंसा दिवस॒इसलिए मनाया जाता है क्योंकि वे अंधकार में डूबे हुए हैं। उन्हें सूझ ही नहीं रहा कि वे इस अंधकार से बाहर कैसे निकलें। बम-बंदूकों के रास्ते शांति का रास्ता खोजते-खोजते॒खुद शांति बम-बंदूकों के ढेर पर जा बैठी है। किसी सिरफिरे के हाथ सत्ता या अवसर आ जाए तो न वह बचेगा न हम। इसलिए गांधी याद आते हैं। वे आखिरी उम्मीद हैं। गांधी जी ने कहा था, आपकी हिंसा अंततः आपको ही खा जाएगी। हिंसा या क्रोध या घृणा की लाचारी यह है कि उसकी उम्र बहुत कम होती है। आप कितने समय नाराजगी या घृणा को पाले रख सकते हैं? आप पूरा जोर लगा लें, तो भी यह दम तोड़ने लगती है। आप इसके जाल से निकलना चाहते हैं, लेकिन हिम्मत नहीं होती। हिंसा की ताकत सबसे पहले हिंसक व्यक्ति को ही कायर बना देती है। अहिंसा कहो कि शांति कहो, यह हमें आजाद करती है,॒आदमी बनाती है और सबको इनसान मानने का सामर्थ्य देती है। हिंसा बदला लेने का सुख देती है, वो वक्त जीत का अहसास भी कराता है लेकिन वह सुख टिकता नहीं है। महाभारत को याद करें तो पाएंगे कि वहां भी सबका नाश हुआ यहां तक कि भगवान कृष्ण का भी। अपने देश को ही देख लीजिए। क्या ऐसा नहीं लगता कि पिछले दिनों में देश का माहौल बदल गया है। सभी डरे हुए हैं, एक-दूसरे को शक की नजरों से देखते हैं। हम एक-दूसरे का भरोसा खो रहे हैं। मोबाइल से बातें कम हो रही हैं, नफरत ज्यादा फैलाई जा रही है। गांधी को बदनाम करने का अभियान सोशल मीडिया पर क्यों बिछा हुआ है। हिंसा के पैरोकारों को गांधी के नाम से इतना डर क्यों लगता है। नफरत के जिस रास्ते पर चल कर पाकिस्तान बना और बदहाल हुआ, क्या हम भी उसी रास्ते पर नहीं चल पड़े हैं? कितने तो सवाल हैं सामने, जवाब एक भी नहीं है। इसलिए पुलिस, कानून, दमन का सहारा ही बचा है, हमारे पास। गांधी के पास चलते हैं तो क्या मिलता है॒रास्ते मिलते हैं, हमारी उलझनों का जवाब मिलता है, हमें नए विकल्प मिलते हैं। पर्यावरण का संकट है, सूखा, बाढ़ और प्रदूषण समाज को तहस-नहस कर रहे हैं। ऐसे में गांधी कहते हैं कि घबराओ नहीं, जीने का तरीका बदलो! सादगी से भरा, आत्मनिर्भरता की दिशा में ले जाने वाला सामाजिक प्रयास ही सारे संकटों से बचा सकता है। वे कहते हैं कि सबको साथ लेकर चलना, सबके साथ प्रयास व प्रयोग करने का नाम ही समाज है। पृथ्वी चाहे जितनी छोटी हो, रेगिस्तान-बंजर हो, लेकिन मनुष्य मात्र के रहने का एकमात्र घर यही है। चाहे हम जितने मंगलयान-चंद्रयान बनाएं, अगर साथ रहने का रास्ता नहीं बना सके, तो यहां भी दुखी हैं, वहां भी दुखी ही होंगे। हमारा भारत अनोखा देश है। इस देश जैसा दुनिया में कोई दूसरा नहीं है। आस्तिक भी, नास्तिक भी, राम भी, रहीम भी, यीशु भी, वाहे गुरु भी,॒अनगिनत धर्म भी, जातियां भी, संप्रदाय भाषा-भूषा भी, परंपराएं भी और संस्कृतियां भी। हजारों साल से इन सबको संभाले हुए यह देश चलता आ रहा है। इसे इसी रास्ते चलना है यदि इसे एक रहना है। लोग पूछते हैं, सभी पूछते हैं कि रास्ता क्या है? ऐसे में गांधी का रास्ता ही सूझता है। हम इसका माहौल बनाएं और जो जहां है, वहीं से अपना काम शुरू कर दे। क्या करना है? सबसे पहली बात एक है, धरती॒एक हैं लोग। हम सब भारत मां की संतान हैं। कोई भारत से छोटी पहचान से हमें जोड़ने आए तो उसे मना कर दें। कोई धर्म-जाति का नाम लेकर हमें लड़ाने की कोशिश करे, तो ऐसे लोगों, संगठनों, संस्थाओं और विचारों से अपना नाता तो? लें फिर वह चाहे कोई भी हो। हम हिंसा की किसी वारदात में सम्मिलत नहीं होंगे, न साथ देंगे और ना उसके दर्शक बने रहेंगे। हम विरोध करेंगे, हम आवाज लगाएंगे और हम जो जानते हैं, देखते हैं॒वह सबको बताएंगे, यह बात डंके की चोट पर कह दें। हम जहां तक संभव हो अपने गांव, घर, मुहल्ले में बनी चीजों का इस्तेमाल शुरू करें। साबुन, तेल, मंजन, कपड़ा इनके लिए हम बड़ी कंपनियों के पास ना जा कर, पास के कारीगर के पास जाएं। अपने रोजगार के लिए सरकार पर निर्भर न रहें। जो बन सके वह गांव में बनाएं, गांव का उत्पादन खरीदें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें। अगर हम सब मिल जाएं तो क्या अपना गांव नहीं खड़ा कर सकते? बिहार के दशरथ मांझी ने 22 साल के अथक परिश्रम से पहाड़ खोद कर रास्ता बना दिया है। असम के जादव पयांग ने 30 साल के अकेले परिश्रम से 550 एकड़ का नया जंगल खड़ा कर दिया। हम अपने गांव के जल, जमीन और जंगल की रखवाली और संवर्धन खुद करेंगे, यह संकल्प कितनी बड़ी ताकत बन सकता है।