गाय के नाम पर

बेशक हम गाय को ‘माता’ मानते आए हैं। उसमें देवत्त्व का एहसास करते हैं और गाय माता की पूजा भी करते रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि भारत के एक हिस्से में गाय ‘चुनावी पशु’ भी है और सांप्रदायिकता का प्रतीक भी…। बेशक एक तबके को गाय (और साथ में ॐ भी) के नाम पर करंट लग सकता है, कान और बाल भी खड़े हो सकते हैं, लेकिन औसत भारतीय को कोई दिक्कत या आपत्ति नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने मथुरा में पशु आरोग्य मेले का उद्घाटन किया, तो यह राजनीतिक बयान देने से नहीं चूके कि कुछ को ‘गाय’ का नाम सुनते ही करंट लग जाता है और जब कुछ ‘ॐ’ शब्द सुनते हैं, तो उनके कान और बाल खड़े हो जाते हैं। राजनीतिक के साथ-साथ इस बयान के संदर्भ और सरोकार ‘हिंदुवादी’ भी हैं। यदि प्रधानमंत्री पशुधन, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और जीवन, किसान की बेहतरी और आमदनी पर बात करके चिंता जताना चाह रहे थे, तो पशुओं के लिए अपेक्षित चारे-भूसे और आवारा झुंडों में घूमने की विडंबना पर भी बात करनी चाहिए थी। इन पशुओं में गाय भी शामिल है। उसने आवारा घूमने की त्रासदी यह झेली है कि बीते दिनों आपरेशन के बाद गायों के पेट से कई किलो पोलिथीन निकला है। भूख किसी भी स्थिति के लिए विवश कर देती है। एक अध्ययन के मुताबिक हमारे देश में करीब 30 करोड़ दुधारू पशु हैं, जिनमें गाय भी है। उन पशुओं के लिए जितना चारा-भूसा चाहिए, उसमें करीब 60 फीसदी की कमी आ गई है। बेचारा गरीब किसान भी कहां तक ऐसे पशुओं के लिए ‘भोजन’ की व्यवस्था करे। नतीजतन रात के अंधेरे में, आवारा झुंडों की शक्ल में, मवेशी घूमते हैं और फलते-फूलते खेतों की फसलें बर्बाद करते हैं। उनमें गायें भी शामिल हैं। उन मवेशियों को अपनी भूख जो शांत करनी होती है! पशुधन के नाम पर यही मोदी सरकार की उपलब्धि रही है। हालांकि प्रधानमंत्री पशुधन के संदर्भ में रवांडा सरीखे छोटे और अविकसित,अफ्रीकी देश का उल्लेख करते रहे हैं। उस देश में गाय जब भी बछड़ा/बछड़ी को जन्म देती है, तो उसे किसी ऐसे परिवार को तोहफे के तौर पर दे देते हैं, जिसके पास गाय न हो। कान्हा की भूमि मथुरा में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि भारत में पशुधन जीवन का आधार है। उसके बिना अर्थव्यवस्था और गांव की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े भी सुनाए कि दुग्ध उत्पादन सात फीसदी बढ़ा है और पशुपालकों तथा किसानों की आय 13 फीसदी बढ़ी है। स्थिति इतनी बेहतर है, तो गायों के पेट से पोलिथीन क्यों निकलता है? वे आवारा घूमते हुए किसी के लहलहाते खेत को उजाड़ कर अपना पेट भरने को बाध्य क्यों हैं? गाय और ॐ शब्दों को सुनकर जिनको करंट लगता है या कान-बाल खड़े हो जाते हैं, उनकी सियासत को छोडि़ए, लेकिन उन जघन्य स्थितियों पर बाल खड़े होने चाहिए, जिनके तहत 2014 से लेकर अभी 2019 तक गाय के नाम पर या उसकी आड़ में करीब 50 हत्याएं की जा चुकी हैं। बेशक इन जबरन मौतों पर हमने प्रधानमंत्री मोदी को भावुक होते या ऐसे तत्त्वों को ‘असामाजिक’ करार देते भी देखा और सुना है। सवाल यह है कि यह सांप्रदायिक सिलसिला क्यों जारी है? गाय अपने आप में आर्थिकी का प्रतीक है। उसके मूत्र, गोबर, दूध सभी अर्थव्यवस्था के लिहाज से उपयोगी हैं। गाय के दूध में प्रोटीन, कार्बोंहाइड्रेट्स, मिनरल आदि की मौजूदगी मानी जाती रही है। बेशक दवाइयों में इनका उपयोग किया जा सकता है या किया जा रहा होगा। तो गाय जैसे दैवीय पशु को लावारिस क्यों छोड़ा जाता रहा है? यदि वह दूध देना बंद कर दे, तो क्या उसे सड़क पर छोड़ना ही कोई विकल्प है? दुग्ध-क्रांति के इस दौर में दुग्ध-उत्पादों से ही एक भरी-पूरी अर्थव्यवस्था खड़ी की जा सकती है। बेशक मवेशियों के भोजन और मुंहपका सरीखे रोगों के उपचार के मद्देनजर 13,000 करोड़ रुपए की योजना शुरू की गई है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी खुद अपने स्तर पर जांच कराएं कि गाय के नाम पर जो लिंचिंग की जाती रही हैं, आखिर उनका समाधान क्या है? या तो गाय का पूरा सम्मान होना चाहिए अथवा गाय के नाम पर तमाम ढकोसलों को छोड़ देना चाहिए। फिर किसी को भी करंट नहीं लगेगा।