द बूक है कि चलती नहीं

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

पंडित जॉन अली अखबार पढ़ते हुए मंद-मंद मुस्कराए जा रहे थे। मैंने उनसे वजह जानना चाही तो बोले, यार खबर छपी है कि एक पूर्व मुख्यमंत्री के अंतिम संस्कार में पुलिस टुकड़ी द्वारा दी जाने 21 द बूकों की सलामी में एक भी द बूक नहीं चली। मैंने जब उन्हें टोका कि पंडित द बूक नहीं, बंदूक। तो दार्शनिक अंदाज में बोले, ‘‘यार मियां! चलती तो बंदूक है, जो नहीं चले, उसे तो द बूक ही कहा जाएगा न। फिर पुलिस वालों के पास तो द बूक ही होगी, जो कभी चलती है कभी नहीं।’’ पंडित ने पुनः बोलना शुरू किया, ‘‘अब देखो न, ऐसा तो हमारे देश में ही ऐसा हो सकता है कि बदमाशों से मुठभेड़ के दौरान, पुलिसिए अपनी बंदूक से गोली चलाने की बजाय मुंह से गोली की आवाज निकालें। ऐसे में उनके पास बंदूक नहीं, द बूक ही होनी चाहिए। चलती नहीं, तभी तो मुंह से गोलियां चलाते हैं।’’ मैंने उनकी तार्किक बुद्धि की तारीफ में अभी अपने होंठ खोले ही थे कि उससे पहले उन्होंने प्रश्न उछाल दिया। वैसे सोचो, अगर हमारी पुलिस को बॉर्डर पर तैनात कर दिया जाए तो क्या होगा? फिर खुद ही बोलने लगे, होना क्या है, भाई लोग वहां भी मुंह से ही काम चला लेंगे। मुख्यमंत्री के अंतिम संस्कार को बिना बंदूकों के चले ही संपन्न मान लिया गया। यही तो विविधता में एकता है। पुलिस किसी भी राज्य की हो, उनकी बंदूकें वहीं चलती हैं, जहां जरूरत नहीं होती। केवल फर्जी मुठभेड़ों के दौरान ही भाई लोगों की द बूकें, बंदूकें बनती हैं।  अगर सरकार चाहे तो हमारी पुलिस को अहिंसा मुहिम का ब्रांड एंबेसेडर बनाकर, गुंडागर्दी को हमेशा के लिए खतम कर सकती है। मुंह से गोलियां चलाकर, पुलिस बदमाशों को ही नहीं, देश के दुश्मनों को भी करारा जवाब दे सकती है। इस तरह राष्ट्रपिता को सच्ची श्रद्धाजंलि देने के साथ-साथ पैसे की भी भारी बचत हो सकती है। जो पैसा बचेगा, उसे गरीबों के विकास में लगाया जा सकता है। मेरे पूछने पर कि कौन से गरीब? वह बोले, अमां यार! अब तू हें गरीबी की परिभाषा भी बतानी होगी। फिर अचानक कहीं भीतर उतरते हुए बोलने लगे, ‘‘मियां! पूछा तो तुमने ठीक ही है। पुलिस से ज्यादा गरीब भला कौन होगा? जब तऩख्वाह से पूरा नहीं पड़ता तो बेचारे, रेहड़ी-फड़ी वालों से भी मांगने में शर्म महसूस नहीं करते। यहां तक कि जनाजों में भी अपना हिस्सा वसूल कर लेते हैं। अब उनसे ज्यादा गरीब कौन है कि प्रदूषण के लिए चाहे चालान 3,000 का बनता हो, तो भी बेचारे 50 रुपए में मान जाते हैं। कैसा भी केस हो, पूरी कोशिश करते हैं कि आरोपी के साथ उन्हें भी सीधी राहत नसीब हो। लेकिन जब कोई उनसे भी ज्यादा गरीब हो तो केस दर्ज करना तो बनता ही है। फिर अचानक उन्हें कुछ याद आया। बोले, ‘‘अमां! माफ करो तुम भी तो पुलिस में हो।’’