नारों से टपकता विकास

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

दुष्यंत भले दशकों पहले कह गए थे, ‘‘आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख’’, लेकिन हम आकाश के तारे देखकर ही जीने में विश्वास रखते हैं। वर्तमान भले ही गुदडि़यों भरा हो, कम से कम सुखद भविष्य की कामना तो की जा सकती है। पर इसके लिए जीवन में नारों का होना आवश्यक है। शायद ही किसी राजनेता की जनसभा नारों के उद्घोष के बिना पूरी होती हो। नारे हैं तो जीवन है, जीवन है तो हम हैं, के फलसफे पर विश्वास रखने वाला आम भारतीय सत्युग से ही नारों में जीता आया है। तभी भगवान राम के वनवास से वापस आने पर अयोध्यावासियों ने जी भर कर नारे लगाए थे। नारे के जोश से ही रामभक्त हनुमान सौ योजन का समंदर लांघ गए थे। यही नारे हमारे नेताओं के लंबे जीवन का राज हैं। पिछले सत्तर सालों में भले ही कश्मीर में हमसे 370 नहीं हटाई जा सकी लेकिन यह नारे ही थे जिन्होंने कश्मीर को भारत के साथ जोड़ रखा था। ‘‘दूध मांगो खीर देंगे, कश्मीर मांगो चीर देंगे’’, इसकी बेहतर मिसाल है। यह तो उनमें कश्मीर मांगने या छीनने की हिम्मत नहीं थी, जो पहले मिमियाते रहे और अब सुबक रहे हैं। सुना है आजकल भय्याजी परेशान घूम रहे हैं। जो अपनी बात कहते हुए भी थुथला जाता हो, नारे गढ़ना उसके बस की बात नहीं। बेचारे कुछ भी कह जाते हैं, फिर उनके पार्टी वाले उनका वमन साफ करते फिरते हैं। उधर महामानव और उनकी पार्टी विपक्ष के यार्कर पर भी हेलिकॉप्टर शॉट से सिक्सर मार रही है। बेचारे भय्याजी नोटबंदी न भुना सके और हुकूमत नारा-पिपासु जनता के सामने नया नारा ले आई, ‘‘महामानव है तो मुमकिन है।’’ आजादी के नारे सांप्रदायिक दंगों में गुम हुए तो जनता के नारा-पिपासु मिजाज पढ़ते हुए चाचा समाजवादियों के नारे चुरा लाए। उन्होंने समाजवाद से यवादियों के घर में ऐसी सेंध लगाई कि उनके नारों पर अपना मुलमा चढ़ा दिया। आपातकाल में भले ही नसबंदी लॉप रही हो, गरीबी का गाढ़ा पल्लू देश के सिर पर वैसे ही पड़ा रहा हो, यह तो नारे ही थे जिन्होंने देश को जीवंत बनाए रखा। बेचारे सा म्यवादी भी भय्याजी की तरह नौसिखिए निकले। अब हलकान होकर कोने में पड़े हैं। एक बेचारा समाजवाद ही है, जो पानी की तरह हर रंग में रंग जाता है। जब महामानव को लगा कि बाजारवाद में स्वदेशी फिट नहीं बैठ रहा तो सालों स्वदेशी की माला जपने के बावजूद बापू के समाजवाद पर हाथ साफ कर लिया। अब चिंतन तो बुद्धिजीवी करें, उन्हें तो बस नारे गढ़ने में महारत हासिल करनी थी। कम से कम चुनाव घोषणा पत्र के ओपनिंग पैराग्राफ लिखने की दिक्कत तो दूर हुई। आर्थिक मंदी के मुहाने पर खड़ा देश कब बाजारवाद की बाढ़ में बह जाए, किसे पता। हम तो मुंतजिर हैं नए नारों के। न जाने कब कोई नया नारा आकर जोश से भर जाए और हम पेट पर कपड़ा बांधे आकाश के तारे देखने में मशगूल हो जाएं।