पगडंडियों पर भटकती क्रांति

सुरेश सेठ

साहित्यकार

आजकल अपने देश में विकास नारों से रैलियों के पंखों पर तैर कर हो रहा है। देश में हुल्लड़बाजी से परिवर्तन लाया जा रहा है, और देश को अपना भविष्य लोकतंत्र में नहीं, भीड़ तंत्र में नजर आ रहा है। कोई चोर, गिरहकट या दुष्कर्मी पकड़ा जाए तो भीड़ उसे कानून के हवाले करने के बजाय वहीं पीट-पीट कर मार देना चाहती है। भीड़ में जुटे हुए मरने मारने पर उतारू चेहरे अपने आप को नए युग का अग्रदूत मानते हैं। उन्हें लगता है कि देश के कानून और व्यवस्था के रखवाले पंगु हो गए। इनके किए धरे तो कुछ होगा नहीं। अब क्यों न कथित अपराधियों को पीट-पीट कर मार दिया जाए। न रहेगा अपराध का बांस और न बजेगी बांसुरी। कभी-कभी आटे के साथ घुन भी पिस जाए, तो इसमें भूल-चूक और लेनी-देनी तो सहनी ही पड़ती है। इस बात को एक जघन्य अपराध की संज्ञा उच्च न्यायाफीठ देता है तो देता रहे। सौ अपराधियों के साथ पांच मासूमों को भी दंड मिल जाए तो देश के नैतिक रूपांतरणा के लिए इतना जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा। पिछला अनुभव कटु है। सरकार ने अपने दंड विधान में ऐसे अपराधों के लिए न जाने कब से सख्त सजाएं तजवीज की इससे, बित्त भर भी अंतर नहीं पड़ा। दहेज लेना-देना अपराध घोषित हुआ, तो दहेज के नाम पर उपहार की कलई पोत दी गई। पहले दहेज के नीलाम घर में दूल्हे बिकते थे, ‘अब जो देना है आपने अपनी बेटी को देना है’ की सौम्या भाषा में उपहार भेंट करने की दौड़ प्रतियोगिता हो रही है। बेटी के मां-बाप उपहार देते हैं, और अपने भाग्य का रोना रोते हुए सिर भी  धुनते हैं। इतने बरस हो गए दहेज को अपराध घोषित हुए। दहेज लोभी ससुराल को अब उपहार लोभी बने हुए युग बीत गया, लेकिन दहेज की प्रवंचना में झुलस कर मरने वाली नई दुल्हिनों की संख्या में कोई कमी नहीं आई, औरत के बारे में समाज की धारणा यही है कि इस पुरुष वर्चस्ववादी समाज में  इन्हें ब्याहने के लिए दम तोड़ने वाला आर्थिक बोझ उठा लो, तो भी उपहार, दहेज नहीं कम जान कर मेहंदी रचे हाथ ससुराल के लोभ की आग में धू-धू करके जलते हैं। दहेज विरोधी कानून अपने पंगुपन पर बिखरता नजर आता है। लेकिन भीड़ का गुस्सा इस दहेज लोभी ससुराल की आग पर बहुत कम गिरता है। क्योंकि आग लगाने वाली इस भीड़ में लोगों का अपना चेहरा भी नजर आने लगता है। आग नहीं लगती, कुछ दहेज विरोधी रैलियों में प्रवचन के स्वर अवश्य तीव्र हो जाते हैं। इस कुप्रथा को रोकने के लिए कन्याओं की भ्रूण हत्याओं के ब्रतास्त्र का सहारा ले लिया जाता है। फार्मूला वही है न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी। इतने मादा शिशु कोख में मार दो, कि कन्याओं की संख्या दूल्हों की मांग के मुकाबले कम हो जाए। कमी का यह मनोविज्ञान अपने आप सोच बदलेगा। जब कन्याओं की आपूर्ति है ही नहीं, तो हो सकता है उपहार लेने की जगह देकर कन्याओं को ब्याहने लगे। देखिए अर्थशास्त्र की मांग  और पूर्ति के इस सिद्धांत ने ऐसी बड़ी सामाजिक कुरीति को मटियामेट कर दिया। इस रास्ते पर देश का लिंगानुपात बिगड़ गया तो क्या, औरतें शादी के मंडप की जगह अपने आपको नीलाम घर में खड़ा पाने लगीं तो क्या।