प्याज का मूड

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

सवाल छिलकों का सदा ही रहा है, खास तौर पर प्याज के तो सर्वव्यापक हैं। आलू और प्याज का रिश्ता भी अपने -अपने छिलकों की वजह से नग्न यथार्थ  की तरह है। यह पक्ष और विपक्ष की तरह भी है और जरूरत पड़ने पर एक साथ चलने को तैयार हो जाता है। इसलिए नग्न पक्ष-विपक्ष एक सरीखे लगते हैं। आलू प्याज के रिश्ते ठीक वैसे जैसे सदन में पक्ष-प्रतिपक्ष के सदस्यों को ऐसे निर्णय पर कोई ऐतराज नहीं होता जब वेतन भत्तों की वृद्धि संबंधी बिल पारित कराना होता है। ऐसे में कब आलू पक्ष बन जाए या प्याज प्रतिपक्ष बना रहे, यह दोनों की कीमत पर निर्भर करता है। राजनीति भी ऐसी ही कीमत पर अपना स्थान चुन लेती है। राहुल गांधी का असमंजस यह रहा कि वह सही समय पर आलू नहीं खरीद पाए और बुरे समय पर प्याज ने उनका साथ नहीं दिया, बल्कि बाजार में चढ़ते प्याज के दामों का इजहार बताता है कि विपक्ष कितना कमजोर है। उसमें इतनी भी ताकत नहीं कि प्याज खरीद सके या न खरीद पाने के लिए सत्ता को कोस सके। हमें तो यहां तक मालूम है कि जब से प्याज के भाव चढ़ रहे हैं, विपक्ष के दाम और उतर गए। प्याज आलू से भी जिद्दी है, बिलकुल चिन्मयानंद की तरह। सड़े से सड़े प्याज के भी दो-चार छिलके निकाल दो, नीचे फिर वहीं तीखापन और ठसक ऐसी कि किसी की भी आंखों से आंसू निकाल दे। चिन्मयानंद स्वामी को भी सड़े प्याज की तरह अपने छिलकों पर गुरुर है। उनके ऊपर आरोप घिनौने हैं, जैसे सड़ी बोरी से निकले प्याज पर शक होता है कि घर पहुंचकर कैसे निकलेगा , ठीक वैसे ही उनकी शिष्या ने छिलके उतार दिए। उसे मालूम नहीं कि चिन्मयानंद के छिलके कहां तक निकलेंगे, भीतर तो वही ठसक है, लिहाजा अब तक मासूम समझी गई औरत भी आलू समझकर हिरासत में डाल दी गई। ठीक वैसे ही जैसे पंजाब के आलू उत्पादक को जब सब्जी मंडी पर शक होता है या ईमानदारी से जिरह करता है, तो गिरी कीमत की वजह से फसल की तरह खेत में ही रह जाता है। चिन्मयानंद जी जेल में भी महान हैं कि उनकी गिरफ्तारी से पीडि़ता के भी जेल में आंसू निकल रहे हैं। अब बताइए प्याज कौन हुआ? सियासत की छिलकापरस्ती का असर बिल्कुल प्याज के बिगड़े मूड की तरह है। प्याज सत्ता की तरह मोहरबंद है, इसलिए अपने छिलकों के बराबर अपना मोल बटोरता है। पूरा समाज एकजुट होकर भी प्याज नहीं हो सकता, अलबत्ता हर छिलका समाज है। इसलिए खुद को छिलका समझ कर पटवारी के पास जाइए और छिलका-छिलका होने का इंतजार कीजिए। कभी निजी अस्पताल व अदालत में न्याय की पैरवी के हिसाब से अपने छिलकों को देखना कि कितने आंसूओं से भरे हैं। नागरिकों में हिम्मत है तो छिलके  नहीं पूरा प्याज बनें। बाजार का प्याज बनें। आंसू निकालने वाला और तड़का लगाने वाला बनें ताकि इज्जत बनी रहे। सेब तक की यह औकात नहीं कि इस सीजन में प्याज का मुकाबला करे और उस जरूरत को समझिए जो सिर्फ प्याज के छिलके पूरी करते हैं। उस पहुंच को देखिए जहां तक इसका राज है। राजमाह से और मांसाहार तक बिछी तस्त्तरी में प्याज बोलता है और हुकूमत करता है दिलों में, बाजार में। ठीक वैसे ही जैसे राजनीति कितनी भी बिके, कितनी भी सड़े, लेकिन बाजार में खड़ी ही इसलिए है कि मोल बढ़ता रहे।