प्रकृति का संरक्षण

श्रीश्री रवि शंकर

प्राचीन भारतीय परंपरा प्रकृति की पवित्रता में विश्वास करती है। यह परंपरा पर्वतों, नदियों, सूर्य,चंद्रमा और पेड़ों को पवित्र मानती है और जो पवित्र है, हम उसका सम्मान करते हैं। दुर्भाग्यवश हम पवित्र परंपराओं के नाम पर अपनी नदियों और पर्वतों को प्रदूषित कर रहे हैं। हमारे मन में यह गलतफहमी भी है कि पारिस्थितिक अपघटन तकनीक और विकास के कारण हो रहा है और यह होता रहेगा, लेकिन ये दोनों आवश्यकताएं पारस्परिक रूप से अनन्य नहीं हैं। तकनीक का उद्देश्य प्रकृति को सुसज्जित करना, सूचना प्रदान करना और मनुष्य को सुविधा प्रदान करना है। जब आध्यात्मिक और मानव मूल्यों को नकार दिया जाता है, तब तकनीक प्रदूषण, विनाश और असुविधाजनक परिस्थितियां उत्पन्न करती है। पर्यावरण में सामंजस्य स्थापित करने और साथ ही साथ तकनीक एवं विज्ञान को विकसित होने देने में आध्यात्मिकता की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आज के समय में यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। हम प्रकृति से पर्यावरण संरक्षण के लिए सबक ले सकते हैं। विज्ञान या तकनीक हानिकारक नहीं है, बल्कि वह कूड़ा-कचरा हानिकारक है, जो विषैले तत्त्वों को उत्पन्न करता है। कूड़े-कचरे की मात्रा को न्यूनतम करने और इसको फिर से प्रयोग करने लायक बनाने की आवश्यकता है। वास्तव में, सबसे बड़ा प्रदूषण कारक मनुष्य का लालच है। यह पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण के रास्ते में आ गया है। यह पर्यावरण मित्र उत्पादन अभ्यासों के बजाय शीघ्र मिलने वाले लाभ और परिणामों को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। लालच नकारात्मक भावनाओं और घटनाओं की छापों के द्वारा, सूक्ष्म वातावरण एवं व्यक्ति के मन को प्रदूषित कर देता है। प्रदूषण भौतिक एवं सूक्ष्म जगत दोनों जगहों पर होता है। एक क्रोधित व्यक्ति से क्रोध प्रवाहित होता है, जो उसके आसपास मौजूद लोगों को भी प्रभावित करने लगता है। सभी युद्धों की जड़ों में संयुक्त नकारात्मक भावनाएं ही होती हैं। प्रायःहम इस बारे में सजग नहीं होते हैं कि जो पर्यावरण के विरुद्ध है, वह स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक नहीं है। प्रकृति के प्रति पारंपरिक सम्मान को फिर से जगाकर हम अपने चारों ओर एक सीमा तक शुद्धता ला सकते हैं। हम प्रकृति में ईश्वर को देख सकते हैं। प्राचीन एवं आधुनिक दोनों ही विधियों को अपनाने की आवश्यकता है। वैदिक कृषि गाय के मूत्र, गाय के गोबर और नीम की पत्तियों के द्वारा की जाती थी और अब यह प्रमाणित हो गया है कि फसल के उत्पादन के लिए ये विधियां बहुत अच्छी हैं। हाल ही में, भारत में किए गए अनुप्रयोगों ने यह दर्शाया कि उर्वरक एवं कीटनाशक के बिना प्राकृतिक खेती करने से फसल का उत्पादन तीन गुना अधिक हुआ। ऐसा नहीं है कि कुछ नया है, तो वह अच्छा है और जो पुराना है, उसे नकार दिया जाए। इन दोनों ही विधियों के अच्छे मिश्रण के द्वारा हमारे जीवन और पर्यावरण में संतुलन आ सकता है। यह केवल तभी हो सकता है जब मानव चेतना लालच,स्वार्थी उद्देश्यों और शोषण से ऊपर उठे। हमें स्वयं से यह पूछने की आवश्यकता है कि हम पृथ्वी का कितना शोषण करना चाहते हैं? या हम पृथ्वी का कितना संरक्षण करना चाहते हैं? हमें हमारी पृथ्वी और इस पर रहने वाले सभी प्राणियों का सम्मान और उनकी बहुत अधिक देखभाल करनी चाहिए। हमें रसायन मुक्त एवं प्राकृतिक खेती करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए। प्रकृति के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धा होगी।