फारूक पर ‘पीएसए’

जम्मू-कश्मीर पर दो महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं। पहली में भारत एवं सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने कश्मीर के हालात के प्रति सरोकार जताए हैं। उन्होंने यहां तक कहा है कि यदि जरूरत पड़ी, तो वह श्रीनगर भी जा सकते हैं। जस्टिस गोगोई ने इसे गंभीर मामला माना है कि आम आदमी इंसाफ  के लिए हाईकोर्ट में नहीं जा पा रहा है, लिहाजा हालात का जायजा वह खुद लेना चाहते हैं। वैसे हालात के मद्देनजर उन्होंने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से रपट तलब की है। बेशक कश्मीर पर सर्वोच्च अदालत ने कोई फैसला नहीं सुनाया है। अलबत्ता प्रधान न्यायाधीश ने ऐसे निर्देश जरूर दिए हैं कि राष्ट्रहित और आंतरिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सामान्य जीवन यथाशीघ्र सुनिश्चित किया जाए। अदालत ने केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर प्रशासन से 15 दिनों के अंतराल में हलफनामा के जरिए जवाब भी मांगा है, लेकिन अनुच्छेद 370 पर कोई निर्णय नहीं किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय 30 सितंबर को अगली सुनवाई करेगा, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री डा. फारूक अब्दुल्ला का मामला भी लिया जा सकता है। दूसरी घटना सुरक्षा और सियासत दोनों से जुड़ी है। राज्य के तीन बार मुख्यमंत्री रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं मौजूदा सांसद फारूक अब्दुल्ला को जन सुरक्षा कानून (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया है। उनके आवास को ही जेल में तबदील कर दिया गया है। यह एक किस्म का काला कानून है। राज्यों में जो रासुका (एनएसए) है, कश्मीर में उसी तर्ज पर पीएसए है। फारूक के वालिद शेख अब्दुल्ला ने 1978 में यह कानून बनाया था। उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन यही कानून उनके बेटे पर लागू किया जाएगा। शेख ने यह कड़ा कानून लकड़ी के तस्करों के खिलाफ  बनाया था, जिसके तहत बिना किसी केस के दो साल तक जेल का प्रावधान किया गया। बाद में कुछ संशोधन भी किए गए। शेख अब्दुल्ला ने अपने विरोधियों के खिलाफ  भी इस कानून का इस्तेमाल किया। बहरहाल इस कानून के घेरे में आने वाले फारूक पहले पूर्व मुख्यमंत्री हैं। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी पांच अगस्त से हिरासत में हैं, लेकिन यह कानून चस्पां नहीं है। 1990 में कश्मीर में आतंकवाद भड़कने और फैलने के बाद आतंकियों, अलगाववादियों और पत्थरबाजों पर भी पीएसए लगाया गया, लेकिन आज फारूक अब्दुल्ला को ही आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा माना गया है। अनुच्छेद 370 समाप्त करने के करीब डेढ़  माह के बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने डा. अब्दुल्ला को किन आधारों पर सुरक्षा के लिए खतरा करार दिया है, यह अलग सवाल है और इसका स्पष्टीकरण राज्यपाल सत्यपाल मलिक ही दे सकते हैं। एमडीएमके नेता-सांसद वाइको ने इस संदर्भ में सर्वोच्च अदालत में याचिका दी है। उस पर भी 30 सितंबर को सुनवाई होगी, लेकिन पीएसए ने विपक्ष के कई दलों और नेताओं को फारूक का दोस्त बना दिया है। कांग्रेस समेत एमआईएम सांसद ओवैसी, सीपीआई महासचिव डी.राजा, वाइको आदि ने फारूक के पक्ष में तीखे बयान दिए हैं। बहरहाल सवाल 370 के बाद कश्मीर के हालात का है। केंद्र सरकार के अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सर्वोच्च अदालत के सामने खुलासा किया कि इस दौरान एक भी गोली नहीं चली और न किसी की जान गई है। हालांकि 1990 से 5 अगस्त, 2019 तक 41,866 मौतें हुई हैं। कश्मीर में अखबार लगातार छप रहे हैं। दूरदर्शन, रेडियो और स्थानीय टीवी चैनलों की सेवाएं नियमित हैं। सालिसिटर जनरल ने बताया कि दवाओं की कोई कमी नहीं है। खाद्यान्न, गैस सिलेंडर, पेट्रोल-डीजल आदि का तीन महीने का स्टाक है। फोन लाइनें ज्यादातर इलाकों में बहाल कर दी गई हैं और मोबाइल-इंटरनेट सेवाएं भी धीरे-धीरे सामान्य की जा रही हैं। यह कश्मीर के अंदरूनी हालात का सरकारी पक्ष है। यदि अब प्रधान न्यायाधीश श्रीनगर जाते हैं, तो असलियत बिल्कुल खुल कर सामने आ जाएगी, लेकिन यह भी यथार्थ है कि कर्फ्यू, संचार सेवाओं का ठप होना कोई नई बात नहीं है। 2016 में जब बुरहान वानी आतंकी सरगना मारा गया था, तो करीब तीन माह तक कश्मीर बंद रहा था। तब कश्मीर का बेचैन तबका इतना चिलचिलाया नहीं था। बेशक 370 हटाने के बाद हालात संवेदनशील हैं, लिहाजा कानून-व्यवस्था बनाए रखना भी सरकार का दायित्व है। वे हालात सामान्य होंगे, लेकिन इस पर सियासत की जाएगी, तो फिर प्रशासन का रवैया भी टेढ़ा होगा। बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय के सामने कश्मीर को लेकर कई याचिकाएं हैं। उनके जरिए अब यह साफ  हो जाएगा कि यथार्थ क्या है?