सड़कों पर बिछौने

‘मौत अब कहां डराएगी, हम कहां जिंदगी में रहते हैं।’ यही सब चरितार्थ करतीं हिमाचल की सड़कें हर निगाह पर कसूरवार हो जाती हैं और इसी बीच मोटर व्हीकल एक्ट के असमंजस में सरकारी खबर पर किस राहत की उम्मीद करें। बेशक वाहन चालक भी कम दोषी नहीं और हिमाचल का जिक्र करें तो यातायात नियमों की धज्जियां उड़ा कर हम भूल रहे हैं कि बढ़ते दबाव की कब्र तक हमारे कदम पहुंच रहे हैं। हिमाचल में सड़कें कालीन की तरह नेताओं को चलने का अवसर देती हैं और रफ्तार की जिंदगी में सियासत अपने कारिंदों को ढोने की फिक्र में आवश्यक मानदंड भूल जाती है। सड़कें न तयशुदा मानदंडों पर किसी उद्घाटन की व्याख्या हैं और न ही भविष्य को रेखांकित करने की सुरक्षित पद्धति को कबूल करती हैं। आश्चर्य यह कि वाहन चलाने की औपचारिकताओं में लाइसेंस प्राप्ति के टेस्ट भी सड़कों पर ही होते हैं। यानी जब कोई चालक लाइसेंस का टेस्ट दे रहा होता है, तो सड़क पर आधिकारिक जाम लगा रहता है। अगर वाहन चलाने की पहली राह ही यातायात को अवरुद्ध करे, तो ऐसी आजमाइश का जिक्र कैसे होगा। क्या परिवहन से जुड़ा महकमा यातायात की नियमावलियों से इतना ऊपर है कि कहीं भी सड़क पर तंबू लगा दे। क्यों नहीं यह सोचा गया कि लाइसेंस के टेस्ट को बाकायदा ट्रैक बनाए जाएं या हर शहर के ट्रैफिक अमन के लिए कोई सामुदायिक मैदान बढ़ाया जाए। चर्चा सड़क सुरक्षा की तब तक होती है, जब तक कोई न कोई दुर्घटना हमारे आंचल में सुराख कर रही होती है, वरना सड़क पर अतिक्रमण है या पीडब्ल्यूडी का भ्रमण है। प्रदेश की सड़कों को आमंत्रित निवेश के हवाले से देखें, तो बीबीएन की यातायात व्यवस्था के जख्म करीब आते-नजर आते हैं यानी हर तरह औद्योगिक निवेश की मुलाकात का सफर इन्हीं सड़कों पर कोहराम सुन रहा है। प्रस्तावित इन्वेस्टर मीट की सफलता के जो चंद कड़वे घूंट हैं, वे इन्हीं सड़कों पर पीने पड़ेंगे। यह इसलिए क्योंकि उम्मीदें जहां सन्नाटे तोड़ रही हैं, वहीं सड़क पर उभरे गड्ढे कराह रहे हैं। सड़क की चौड़ाई- मोटाई का निर्धारण ही गुणवत्ता व सुरक्षा का सबूत है, लेकिन कुछ ढील इस कद्र है कि हर जगह इस या उस छोर पर व्यापार की कीलें अतिक्रमण कर रही हैं। हर सड़क अपनी पैमाइश खो चुकी है तो इसके किनारे पर व्यावसायिक इरादों का कंक्रीट सारी जगह घेर रहा है। प्रदेश में ट्रैफिक सिग्नल की न तो कोई सोच और न ही कोई योजना। सड़कें आपस में दिशाओं को विभाजित करती हुईं चौराहों पर खड़ी हैं, लेकिन यातायात के हिसाब से अधोसंरचना नहीं यानी प्रदेश भर में अधिक से अधिक एक दर्जन चौराहे ही विकसित हुए होंगे, वरना ट्रैफिक को केवल हॉर्न का शोर ही संचालित करता है। शहरों, पर्यटक एवं धार्मिक स्थलों की सड़कों को मालूम ही नहीं कि उनकी मंजिल क्या है। पूरे प्रदेश में बस स्टॉप तय करने की कोई पद्धति नहीं, लिहाजा सड़कों पर बसें जब अपना ठहराव तय करती हैं, तो आमने-सामने खड़ी होकर सारे यातायात को बाधित करने की इन्हें छूट हासिल है। वहीं कोई वाहन गति की सीमा निर्धारित नहीं, इसलिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम भी सड़कों पर डींगें मारते हुए प्रतिस्पर्धा करता है। इतना ही नहीं हिमाचली सड़कों की मिलकीयत पर रेहड़ी-फड़ी का बाजार खड़ा है, तो आईपीएच की पाइप, बिजली बोर्ड का खंभा,  वन विभाग का कोई बूढ़ा पेड़ या दूर संचार की अधूरी खुदाई में अड़ा तार भी डटा है। क्या हिमाचल की सड़कों  का यही प्रारूप विकास की अनुकूलता है या जिस पर वाहन चल पड़े, वही सड़क है।