हाय ये हिंदी की रूदालियां

अशोक गौतम

साहित्यकार

हिंदी पखवाड़ा खत्म होने के बाद कल हिंदी मिली मुस्कुराती हुई तो मैं परेशान! हद है यार! ये वे तो बेकार ही विद पारिश्रमिक इसकी दुर्दशा को लेकर जार-जार हुए रहे थे। हिंदी ने ठहाका लगाते बात-बात में मुझे मुफ्त में हंसने वाले को बताया कि खुशी की बात ये थी कि सरकार ने अब के भी दिल खोलकर उसके मस्त मजे होने के बाद भी उसकी दुर्दशा पर भाड़े की रूदालियों को रोने की एवज में अच्छा खासा मेहनताना रखा था। इसलिए मेरी दुर्दशा पर पर्याप्त फंड के चलते मेरे पखवाड़े में पखवाड़ा भर मेरी दुर्दशा पर हिंदी की रूदालियों ने डटकर रोना रोया। इतना कि इन पारिश्रमिक पर लाई रूदालियों का रोना देख मैं भी सहम गई। मेरी दुर्दशा पर इनके रोने पर कई बार तो मुझे भी हंसते- हंसते लगता कि क्या मेरे सच्ची को इतने बुरे हाल हैं कि…. हे मेरे दोस्त! मंदी के इस दौर में स्किल्ड तो स्किल्ड, अन स्किल्ड हिंदी की रूदालियां भी अब के गजब का धंधा कर गईं। पखवाड़ा भर हिंदी की रूदालियां थीं कि जहां भी पता चलता कि शाम को वहां पर मेरी दयनीय दशा पर रोए जाने का पेड कार्यक्रम है, वह बुलाए तो बुलाए एबिन बुलाए भी वहां पहुंच जातीं अपने चेहरे पर रोने का फेस पैक लगाए।…. और जो बिन बुलाए मेरी दुर्दशा पर वहां रोने पहुंचती तो कार्यक्रम वाले उन्हें रोता देख घूरते, तो वे त्योरियां चड़ातीं कहतीं- ये ही दिन तो निगोड़ी हिंदी की दुर्दशा पर रोने के हिंदी रूदालियों के दिन हैं जी! वे पंद्रह दिन पेड होकर नहीं रोएंगी तो बाद में कब रोएंगी ? साल में पंद्रह दिन ही तो होते हैं हिंदी की दुर्दशा पर पेड रोने के। बाद में जो रोएं तो हिंदी वाले ही दुर्र-दुर्र करते हैं। हिंदी की दुर्दशा पर सपारिश्रमिक पंद्रह दिन दिल खोलकर रोना हिंदी की रूदालियों का कानूनी हक है। भैया! मैं उनका रोना सुनते-सुनते परेशान हो गई अपने पखवाड़े की मारी। जिस मंच पर भी सरकारी फंड खाने वाले आयोजक मुझको न चाहते हुए भी अध्यक्ष बनाते, माननीय होने के बाद भी अपनी दुर्दशा पर इन रूदालियों का रोना सुनते-सुनते मेरे कान पक जाते। तब मैं कहते-कहते मर जाती कि मेरी इतनी दयनीय दशा नहीं है कि उस पर पारिश्रमिक देकर रोने वाले बुलवाए जाएं। पर जो मान जाए वह आयोजक नहीं ! उन्हें तो बस अपने चेले-चांटों के साथ अपना भी तो  दारू- शारू निकालना होता है न भैया! और जो गलती से वे मान जाएं तो उनकी दयनीय दशा पर रोने वाला कौन हो फ्री में? वैसे बंधु! पैसे लेकर भी रोना हर एक के बस की बात नहीं होती, हंसना भले ही सबके वश की बात हो। पारिश्रमिक लेकर ही सही, झूठ-मूठ के रोने के लिए बहुत गजब की कलाकारी करनी पड़ती है। सच्ची को हंसने के लिए उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती, जितनी झूठ का रोने के लिए करनी पड़ती है। किसी के मुस्कुराते होने के बाद भी उसकी दुर्दशा पर रोने के लिए बहुत बड़ा जिगरा चाहिए भाई साहब! हाथी के गोबर के ढेर से भी बड़ा।