हिमाचली सेब पर विदेशी सेब भारी

वीरेंद्र सिंह वर्मा

लेखक, शिमला  से हैं

राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रदेश के एक- तिहाई विधानसभा क्षेत्रों में सेब बागबानी होती है। सेब प्रदेश की मुख्य नकदी फसल है। प्रदेश के फल उत्पादन क्षेत्र के 49 प्रतिशत क्षेत्र में मात्र सेब उत्पादन होता है और प्रदेश के फल उत्पादन में 85 प्रतिशत हिस्सेदारी सेब की है। सेब की आर्थिकी प्रतिवर्ष 4500 करोड़ की है। बागबानों के अतिरिक्त बागीचों में काम करने वाले दिहाड़ीदार, ग्रेडर ट्रांसपोर्ट संबंधित लोग आदि लाखों की संख्या में अप्रत्यक्ष तौर पर बागबानी से रोजगार प्राप्त करते हैं। इनके अलावा बाहरी राज्यों के पेटी निर्माता, सी स्टोर मालिक, फलों के थोक विक्रेता, फल प्रोसेसिंग के माध्यम से हजारों लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं…

प्रदेश के मध्यम ऊंचाई वाले सेब बाहुल क्षेत्रों में इन दिनों सेब का तुड़ान जोरों पर है। पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष सेब का उत्पादन डेढ़ से दो गुना यानी कि 4 करोड़ पेटियों के लगभग होने की उम्मीद है। कभी साहसी, धनाड्य और प्रयोगधर्मी लोगों तक सीमित सेब की बागबानी से वर्तमान में प्रदेश के 2 लाख से अधिक परिवार प्रत्यक्ष रूप से  अपनी जीविका के लिए जुड़े हैं। प्रदेश के 12 में से 9 जिलों के लगभग 1.25 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सेब उत्पादन किया जा रहा है। राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रदेश के एक-तिहाई विधानसभा क्षेत्रों में सेब बागबानी होती है। सेब प्रदेश की मुख्य नकदी फसल है। प्रदेश के फल उत्पादन क्षेत्र के 49 प्रतिशत क्षेत्र में मात्र  सेब उत्पादन होता है और प्रदेश के फल उत्पादन में 85 प्रतिशत हिस्सेदारी सेब की है। सेब की आर्थिकी प्रतिवर्ष 4500 करोड़ की है। बागबानों के अतिरिक्त बागीचों में काम करने वाले दिहाड़ीदार, ग्रेडर ट्रांसपोर्ट संबंधित लोग आदि लाखों की संख्या में अप्रत्यक्ष तौर पर बागबानी से रोजगार प्राप्त करते हैं। इनके अलावा बाहरी राज्यों के पेटी निर्माता, सी, स्टोर मालिक, फलों के थोक विक्रेता, फल प्रोसेसिंग सयंत्र, आढ़ती और लदानी जो कि अपने माध्यम से हजारों लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं, सेब आर्थिकी पर ही निर्भर करते हैं। उपयुक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रदेश की तरक्की तथा आर्थिकी और लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में सेब उत्पादन का कितना महत्त्वपूर्ण योगदान है। शायद इसी कारण पिछली सरकार के समय की विश्व बैंक प्रायोजित बागबानी परियोजना की खींचतान के बाद वर्तमान सरकार ने प्रारूप बदल दिया। सेब उत्पादन को प्रदेश में 100 वर्ष से अधिक का समय हो गया है। एक शताब्दी होते-होते सेब उत्पादन एक व्यावसायिक गतिविधि बन चुका है जो कि अब  मार्केट और टेक्नोलॉजी उन्मुख होते जा रहा है।

अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के चलते प्रदेश के बागबान को अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। सेब सहित अन्य कमाडिटीस पर आयात शुल्क घटने से देश में अमरीका, चीन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों से उच्च गुणवत्ता युक्त, बदलती जलवायु के अनुकूल सेब कम कीमत पर आने लगा है जिससे  बागबानों को उनकी वर्तमान बागबानी के अनुसार अपनी लागत और उत्पादन के अनुरूप फसल के दाम नहीं मिल पा रहे हैं। न्यूजीलैंड जैसे देश में सेब की उत्पादकता प्रति हेक्टेर 65 मीट्रिक टन है जबकि प्रदेश की उत्पादकता मात्र 7 एमटी प्रति हेक्टेयर है। इसके अतिरिक्त पोस्ट हार्वेस्ट टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी वे अग्रणी हैं जबकि प्रदेश  में पोस्ट हार्वेस्ट अधिकांशतः मैनुअल मानवीय है। ऐसे में प्रदेश का बागबान अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का सामना कैसे करेगा जबकि सेब आर्थिकी के तंत्र की अधिकांश कडि़यां कमजोर हैं। यहां का बागबान सेब उगाने से लेकर बेचने तक पग-पग पर चुनौतियों से घिरा है। इस प्रक्रिया में उसकी निर्भरता बाहरी कारकों ‘एजेंसीस’ पर बहुत अधिक है और जो विश्वसनीय नहीं है। जागरूक और प्रगतिशील बागबान इस क्षेत्र के ट्रेंड्स से वाकिफ  रहते हैं, किंतु भीड़ का एक बहुत बड़ा हिस्सा जो देखा-देखी और भेड़ चाल में चलता है अकसर अनेक तंत्रों की असफलता का शिकार बनता है। सरकार का दायित्व बनता है कि बागबान द्वारा झेली जा रही समस्याओं  का समाधान करे न कि बागबान और उसकी समस्याओं  को उनके हाल पर छोड़ दे। आज का पर्यावरण और जलवायु सेब उत्पादन के लिए बड़ी चुनौती बन चुके हैं। प्रदेश की बात करें तो परंपरागत सेब की बेल्ट कम और मध्यम उंचाई वाले क्षेत्रों से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर खिसक रही हैं।

ग्लोबल वार्मिंग, मौसम चक्र में बदलाव, कम बर्फबारी और असामान्य वर्षा के कारण आवश्यक 1600 से 2000 घंटों के चिलिंग आवर्स पूरे नहीं हो पा रहे हैं। अधिक गर्मी से अनेक प्रकार के कीट, जीवाश्म और खरपतवार पैदा हो रहे हैं जिनसे सेब की पैदावार प्रभावित हो रही है। विज्ञान बदलते पर्यावरण और जलवायु के आगे बेबस बागबान को इसी बदलती जलवायु के अनुरूप हाइब्रिड पौधे उपलब्ध करवा रहा है किंतु सही समय और कीमत पर बागबानों को वाइरस मुक्त सर्टिफाइड पौधे उपलब्ध करवाना सरकार, बागबानी विभाग और वानिकी विश्वविद्यालय के लिए टेढ़ी खीर बना रहता है। इटली से आयातित पौधों के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि सेब की आर्थिकी की चैन के सभी तंत्रों में तालमेल की कमी के चलते इनकी पूर्ण सफलता में कम रह गई। चूंकि बागीचों में पुराने पेड़ों की जगह नए पौधे लगाने का काम प्रतिवर्ष चलता रहता। ऐसे में गलत या कम गुणवत्ता वाले पौधे लगाने से बागबान की आमदनी का चक्र गड़बड़ा जाता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि बागबानों को सही मार्गदर्शन और जानकारी प्रदान करें ताकि बागबान सही ढंग से सघन उत्पादन के तरीके सीख सके। सेब उत्पादन के इस चरण में सरकार की सकारात्मक भागीदारी की आवश्यकता अधिक है क्योंकि बागबान की आमदनी उसके द्वारा लगाए पौधों की उपज पर निर्भर करेगी, सर्दियों में पौधारोपण के लिए और अप्रैल माह में फ्लवरिंग के लिए बागबान प्रकृति और मौसम पर पूर्णतः निर्भर रहता है। थोड़ा सा तापमान ऊपर या नीचे हो जाए तो सब गड़बड़ हो सकता है। इसके बाद फल बनना आरंभ होता है और इसी समय यानी कि अप्रैल से जुलाई तक ओले गिरने की संभावना भी लगातार बनी रहती है। इसके अतिरिक्त तेज हवा और अंधड़ चलने से कई दफा खड़ी फसल झड़ जाती है। बड़े और प्रगातिशील बागबान ओलों से अपनी फसल बचाने के लिए जालियों का प्रयोग करते हैं। यद्यपि यह चलन बढ़ रहा है, किंतु फिर भी प्रदेश में आधे से ज्यादा सेब खुले आसमान के तले ओले गिरने की संभावना के साथ उगाया जाता है। सरकार द्वारा जालियों पर सब्सिडी के बावजूद यह छोटे बागबानों की पहुंच से बाहर है।