एग्जिट पोल के संकेत

जनादेश के संदर्भ में एग्जिट पोल का भी वैज्ञानिक महत्त्व है। हालांकि असली चुनाव नतीजों और अनुमानित जनादेश के बीच, कभी-कभी गंभीर विरोधाभास दिखाई देते हैं। फिर भी एग्जिट और ओपिनियन पोल के संकेतों को एकदम खारिज नहीं किया जा सकता। महाराष्ट्र और हरियाणा में मतदान भी संपन्न हो चुका है और एग्जिट पोल के स्पष्ट अनुमान हैं कि दोनों ही राज्यों में भाजपा को बेहतर बहुमत हासिल हो सकता है। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को करीब 200 या उससे भी ज्यादा सीटें मिल सकती हैं। अकेली भाजपा को ही 140 सीटें हासिल हो सकती हैं। कुछ अनुमान कम भी हैं, लेकिन तमाम समस्याओं, विसंगतियों के बावजूद मतदाता भाजपा के पक्ष में ही वोट कर रहा है, यह संकेत चौंकाता है। यदि हरियाणा में अनुमानित नतीजों के मुताबिक भाजपा ने 70-75 सीटें जीत लीं, तो तय है कि जनादेश न केवल ऐतिहासिक होगा, बल्कि हरियाणा के राजनीतिक समीकरण भी बदल जाएंगे। ऐसे जनादेश की सूरत में देवीलाल द्वारा गठित पार्टी इंनेलो का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा और उनकी विरासत के तौर पर ओम प्रकाश चौटाला के पौत्र दुष्यंत को भी राजनीतिक स्वीकृति नहीं मिलेगी। एग्जिट पोल के संकेत स्पष्ट हैं कि एक ओर प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी का व्यापक, मजबूत संगठन है, तो दूसरी ओर विपक्ष में भटकाव, बिखराव और संघर्ष हीनता है। बुनियादी तौर पर विपक्ष गायब होता दिख रहा है। दोनों ही राज्यों में भाजपा की सत्ता में शानदार वापसी होने के संकेत हैं, जबकि बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या और दूसरे संकट, बिजली, पानी, सूखा, बाढ़ और कुछ घोटाले ऐसे थे कि जनता का भाजपा-मोदी से मोहभंग संभावित हो सकता था। महाराष्ट्र में मराठा, दलित, किसान आंदोलनों ने राजनीति और सार्वजनिक जीवन को थरथरा दिया था। हैरानी है कि उनका फायदा भी भाजपा गठबंधन को मिलता लग रहा है। विदर्भ संवेदनशील क्षेत्र है, लेकिन वहां भी भाजपा गठबंधन के पक्ष में सभी रुझान सामने आए हैं। इसका बुनियादी कारण विपक्ष की निष्क्रियता है या सोशल मीडिया पर ही सियासत करना है। उसके जरिए आप मोदी-शाह की रणनीति को पराजित नहीं कर सकते। हालांकि 2014 की तुलना में इस बार मतदान कम हुआ है और करीब 8-10 फीसदी घटा है। एक व्याख्या तो यह हो सकती है कि मतदाता उदासीन होता जा रहा है। दूसरी व्याख्या यह है कि विपक्ष की संघर्षहीनता के मद्देनजर उसका परंपरागत वोटर बूथ तक नहीं आ रहा, क्योंकि उसे जनादेश का एहसास है। यह लोकतंत्र की बहुरूपता के बजाय वर्चस्ववादी स्थिति है, जो कभी भी सुखद नहीं हो सकती। देश के साथ-साथ इन दोनों राज्यों में भी आर्थिक सुस्ती का दौर है। दीवाली के मौसम में भी बाजार शांत हैं, कारोबारी रो रहे हैं। उसके बावजूद महाराष्ट्र में करीब 46 फीसदी वोट भाजपा गठबंधन को मिलते दिख रहे हैं और कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन 35 फीसदी तक सिमटता लग रहा है। चुनाव नतीजे 1-2 फीसदी के अंतर से ही पलट जाते हैं। राजस्थान और मध्यप्रदेश में हम देख चुके हैं, लेकिन महाराष्ट्र में यह फासला 10 फीसदी तक लग रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है? हरियाणा का विश्लेषण करें, तो वहां करीब 28 फीसदी आबादी के साथ जाट सबसे ताकतवर समुदाय हैं और वे फिलहाल भाजपा-समर्थक कम हैं। भाजपा की रणनीति ने जाटों को बांट दिया और गैर-जाट समुदायों को लामबंद किया, नतीजतन पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग एक बार फिर कामयाब होती लग रही है। हरियाणा में भाजपा का अपना जनाधार ऐसा नहीं रहा कि वह अपने बूते सरकार बना सके। देवीलाल के साथ गठबंधन होता रहा और भाजपा सरकार तक पहुंचती रही। 2014 में मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा ने अपने दम पर सरकार बनाई थी। यदि इस बार जनादेश का आंकड़ा 70-75 तक पहुंच गया और कांग्रेस 10 से कम सीटों पर ही ठहर गई, तो मानना पड़ेगा कि हरियाणा की राजनीतिक संस्कृति और परिदृश्य बदल रहे हैं। एक और महत्त्वपूर्ण रुझान एग्जिट पोल के जरिए सामने आया है कि बेशक लोकसभा वाला जनादेश भाजपा के पक्ष में नहीं लग रहा, लेकिन अब भी औसतन 35 फीसदी मतदाताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के कारण वोट भाजपा को दिया है और 50 फीसदी से अधिक गृहिणियां भाजपा के पक्ष में मतदान करती लगी हैं। साफ  है कि विपक्ष भाजपा की कमियों और वादा खिलाफी में अपनी ताकत नहीं ढूंढ सकता। कश्मीर में अनुच्छेद 370 पर की गई राजनीति को गालियां देकर अपना समर्थन हासिल नहीं किया जा सकता। विपक्ष को मोदी-शाह की राजनीति को चुनौती देनी है, तो सड़कों पर बिछना पड़ेगा, लाठियां खानी पड़ेंगी और जेल भी जाना पड़ेगा। सबसे गौरतलब यह है कि कांग्रेस को एक ही स्वर, एक ही कथन कहना पड़ेगा। राजकुमार-राजकुमारियां अब विपक्ष का नेतृत्व नहीं कर सकते, क्योंकि जनता ने अपने तेवर बदल लिए हैं।