छोटी काशी उत्सव

मंडी में ‘छोटी काशी’ का शृंगार करता उत्सव, सांस्कृतिक समारोहों की नई व्याख्या के साथ-साथ पर्यटन की जरूरतें पूरी करने की शुरुआत भी है। मंडी के परिप्रेक्ष्य में इसके सांस्कृतिक महत्त्व से मानसिक परिपक्वता के मंसूबे जोड़ता हुआ दो दिवसीय उत्सव अपनी भुजाओं में सारा आनंद भर लेता है, तो छोटी काशी होने की गरिमा अंगीकार होती है। इन पलकों से झांकने की कोशिश में एक साथ इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी को अपनत्व मिला और इसके पीछे मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का अनुराग पुल्कित होता है। सांसद राम स्वरूप शर्मा के प्रयासों से ब्यास आरती के मुहाने आज अगर गूंज रहे हैं, तो मंडी की पृष्ठभूमि में यह बदलाव अपरिहार्य रहा है। संभावना वर्षों से पुकारती रही और विक्टोरिया पुल से नीचे ठहरती हुई ब्यास नदी चीखती रही, लेकिन सियासी काफिले खामोशी से आगे निकल गए। काशी महोत्सव के माध्यम से उन संदर्भों को जागने का अवसर मिला, जो बाजारवाद के अतिक्रमण से हमारी परंपराओं और विरासत के साझापन को नजरअंदाज कर रहे हैं। इस दौरान मंडी के कई पल पीछे छूट गए या भौतिक विकास के कारण जिला के भीतर सियासी सरहदों ने अपना-अपना आबंटन कर लिया। विरासत को हमने विकास के उगते सूर्य के आगे खोना शुरू किया, तो समाज भी अपनी कंद्राओं में अकेला होने लगा। ऐसे में छोटी काशी ने इस आयोजन में कुछ अपने चिन्ह बटोरे होंगे या सोचने-समझने के लिए दो कदम तो अवश्य लिए होंगे। यह दीगर है कि ऐसे आयोजनों की परिपाटी बनाने की कवायद, हिमाचल में नहीं बनी और गाहे-बगाहे ही सांस्कृतिक बिंदुओं में विमर्श का कोई बहाना मिल जाता है। काशी महोत्सव की परिधि में हिमाचल को प्रदर्शित करती संवेदना, राज्य स्तरीय आयोजन की इच्छा शक्ति और ढर्रे से हटकर इसके स्वतंत्र प्रारूप की मांग रहेगी। अगर तमाम आयोजन सरकारी पल्लेदारी में होंगे, तो हम इन्हें राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और पर्यटक आकर्षण की उत्कृष्टता से नहीं जोड़ पाएंगे। कहना न होगा काशी महोत्सव न तो मंडी की शिवरात्रि सरीखा आयोजन होना चाहिए और न ही कला, संस्कृति और भाषा विभाग या अकादमी की औपचारिकता का विवरण। यह साधारण कार्यक्रमों की शृंखला का कवि सम्मेलन, फूड फेस्टिवल, पुस्तक मेला या छोटे-मोटे शो में निरुपति विषयों का जमघट न बने, बल्कि पूर्व निर्धारित विषयों की प्रासंगिकता में अपनी तरह की अलग पहचान बनाए। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय संगीत सम्मेलन या लोक-संस्कृति सम्मेलन की तर्ज पर ‘छोटी काशी महोत्सव’ पारंगत होता है, तो श्रोता-दर्शनार्थी अपने साथ पर्यटन की क्षमता को भी निखारेंगे। विडंबना यह भी रही कि मंडी जैसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में कोई ऐसा सभागार नहीं, जहां लोक गीत-संगीत का मंचन हो सके। कल अगर राष्ट्रीय लोक संस्कृति का कार्निवाल ही आयोजित करना हो, तो मंडी शहर की अधोसंरचना इसके काबिल नहीं। हम शिवरात्रि के पर्व की परिक्रमा में यह भूल जाते हैं कि भविष्य में इसके वैभव को बचाने का इंतजाम कैसे करना होगा। जाहिर तौर पर शिवरात्रि समारोह से अधोसंरचना की जरूरतें पता चलती हैं और जिन्हें ‘छोटी काशी उत्सव’ आते-आते मजबूती से पूरा करना होगा। कब तक एकमात्र पड्डल मैदान के सहारे मंडी अपने हर तरह के जश्न को पूरा कर सकता है। क्यों नहीं शहर की परिधि में कुछ अतिरिक्त सार्वजनिक मैदान विकसित किए जाते और मेलों के दौरान भीड़ को संचालित करने के लिए कुछ रज्जुमार्ग, झूला पुल या पैदल चलने के लिए रास्ते निर्धारित किए जाते। कला और कलाकार के प्रोत्साहन के लिए मंडी जैसे स्थान पर प्रशिक्षण संस्थान बनाए जाने की जरूरत है। प्रदेश की कला-संस्कृति को वास्तविक संरक्षण एक सशक्त नीति तथा बजटीय आबंटन से संभव है। इसके तहत मुख्य शहरों में आधुनिक सभागार, ऐतिहासिक-धरोहर शहरों में सांस्कृतिक उत्सव, फूड फेस्टिवल, कबाइली समारोह, कार्निवाल, दृश्य एवं श्रव्य कार्यक्रम, लिट फेस्ट, संग्रहालय समारोह, पुस्तक मेले आदि का आयोजन किसी स्वतंत्र एजेंसी या मेला प्राधिकरण के तहत करना होगा। तमाम समारोहों का मूल्यांकन करते हुए इन्हें एक केंद्रीय व पारदर्शी व्यवस्था के तहत लाना होगा, ताकि हिमाचली कला और कलाकार को प्राथमिकता मिले।