जो मिला, काफी है ज्यादा के लिए मेहनत करें

मेरा भविष्‍य मेरे साथ-7

करियर काउंसिलिंग

कालेज छूटने को भगवान का अन्याय व बदकिस्मती मान, दुखी मन से मैं, पठानकोट रेलवे स्टेशन पर भीड़, शोर, गर्मी और मच्छरों के बीच सेना ट्रेनिंग सेंटर जाने वाली रेल का इंतजार कर रहा था। प्लेटफार्म पर भीड़ देख लग रहा था मानो पूरा मुल्क ही सफर पर निकल पड़ा हो। ट्रेन आने पर जनरल कंपार्टमेंट में भीड़ और धक्कों के बीच जैसेः तैसे अंदर घुसा। इतनी भीड़ थी कि बैठना तो दूर पर खड़ा होना और हिलना-डुलना भी मुश्किल था, थोड़ी देर में ज्यादातर यात्री खड़े -खड़े ही  सोने लगे। अंबाला में कुछ यात्रीयों के उतरने से मेरे को लकड़ी के फट्टे से बनी सीट पर बैठने का मौका मिला। अपने बैग को सीट से ताला लगा मैं खिड़की वाली सीट पर बैठते ही नींद में खो गया, सूरज की किरणों के साथ मैंने आंखें खोली तो रेलवे ट्रैक के नजदीक लंबी झुग्गी बस्ती  के आसपास मुर्गे, बकरियां, सुअर, गंदे पानी के साथ बच्चे, पुरुष और महिलायों को हाथ में लोटा लिए सुबह के नित्य कर्म के लिए खड़ा पाया। इतने में ट्रेन दिल्ली पहुंच गई। यहां ट्रेन को थोड़ी देर रुकना था, यात्रियों ने चढ़ना उतरना शुरू कर दिया, मैंने भी नीचे उतर, सबसे पहले रेलवे शीतल जल पियाऊ से हाथ मुंह धोकर थोड़ा पानी पिया फिर उत्सुकता से रेल के डिब्बों का मुआयना करने लगा। मैंने पाया कि जनरल कम्पार्टमैंट के अलावा कुछ डिब्बे स्लीपर कोच  थे, जिनमें गद्देदार सीट थी उसके यात्री अपने आप को जनरल क्लास के यात्रियों से अच्छा समझ रहे थे, थोड़ा आगे  दोनों तरफ  से शीशे लगे एसी बातानुकुलित कोच थे, उसके यात्री अपने को सबसे सुपीरियर समझ रहे  थे । एक ही रेल में तीन तरह के कम्पार्टमेन्टएक्युं। सोचते हुए मैं पूरी-छोले की प्लेट ले नाश्ता करने लगा। इतने में मैंने सामने पटरियों में करीब  7-8 साल के बच्चे को शौच व गंदगी से कचरा बीनते हुए देखा,  फटे -मैले  कपड़े, लंबे गंदे नाखून, जिस्म पर काली पपड़ी, जटाएं बने बालों में ऐसा लग रहा था, मानो ये बरसों पहले नहाया हो। उस बच्चे को कचरे में एक पालथीन से कुछ खाने का सामान मिला और वह उसे निकाल वहीं शौच व गंदगी के पास बैठकर खाने लग गया। यह देख, मैं दौड़कर उसके पास पहुंचा और उसके हाथ से खाने का टुकड़ा नीचे गिरा दिया, बच्चा सहमी और डरी आंखों से मेरी तरफ  देखने लगा, मानो पूछ रहा हो, कि तूने ऐसा क्यों किया।

प्लेटफॉर्म पर खड़े हजारों यात्री मेरी तरफ  देख रहे थे, मैं उस लड़के को पकड़ कर रेड़ी तक लाया व पूरी-छोले की प्लेट उसके हाथ में दी, रेडी वाले को पैसे दिए और मन में एक और सवाल लिए अपनी सीट पर बैठ पिछले 24  घंटों की घटनाओं के बारे में सोचने लगा। कहां छोटी-छोटी बातों पर किस्मत को कोसना, तीन साल तक कालेज की खुशी और मस्ती के बाद एक साल बर्बाद होने को मैं दुनिया का सबसे बड़ा अन्याय मान रहा था, पर जनरल कम्पार्टमैंट में बच्चे को गोदी में लिए खड़ी-खड़ी सो रही औरत, झुग्गी-बस्तियों  के बाहर गंदे पानी के किनारे खड़े लोग और गंदगी से कचरा बीनते लड़के को देख, मुझे मेरी मुश्किलें और दुख बहुत बौने लग रहे थे। इस सफर ने मेरी सोच को एक नई दिशा दी।

बहुत सारे लोग जिंदगी में मुश्किल आने पर खुद को या किस्मत को कोसते हैं, कोई टेस्ट पास व नौकरी न लगने या प्यार में धोखा होने से डिप्रेशन में चले जाते हैं और खुदखुशी करने की कोशिश करते हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जिनके पास रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं पर वह सब  मुश्किलों से लड़ते हुए जी रहे हैं। इस अनुभव से  मैंने जिंदगी का एक उसूल बनाया कि गर जिंदगी में कभी, किसी अन्याय पूर्ण घटना से मैं व्यथित होता हूं और लगता है कि जिंदगी में कुछ नहीं बचा तो मुझे उस कचरा बीनने बाले लड़के के बारे में सोचना है और गर किसी क्षण लगता है कि सब ठीक है, अब सब पा लिया, उस वक्त वातानुकूलित कोच मैं सफर करने वालों के आनंद की अनुभूति के बारे में सोचकर बड़ा लक्ष्य रखकर अथक मेहनत करूंगा। मेरा मानना है, जिंदगी में मुश्किलों और असफलताओं पर दुखी न होकर सकारात्मक सोच से आगे बढ़ना ।