दशहरे में राम बेचता रावण

अशोक गौतम

साहित्यकार

अबके दशहरे में अचानक मेरी नजर राम की तस्वीरें बेचते रावण पर पड़ीं तो पहले तो मैंने सोचा कि बाजार में भगवान तक को बेचने के लिए लोग क्या-क्या रूप धारण नहीं करते? कभी तो वे भगवान बेचने के लिए खुद ही भगवान तक हो जाते हैं, पर श्रद्धालु-भक्तालु उपभोक्ता भक्त तब भी उनमें कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते। हो सकता है कि इस बंदे ने भी राम को बेचने के लिए रावण का रूप बनाया हो। अच्छाई का धंधा अब जो बुरे लोग करें तो शायद समाज में अच्छाई की स्थापना हो सकती हो। ऊंचे ओहदों के तथाकथित संभ्रांत अपने चरित्र को दूध सा विज्ञापित करने वालों ने तो जितनी बार समाज में मूल्यों की स्थापना की, मूल्य ले समाज में खुद ही बिक गए। पर अच्छा लगा उस वक्त ये देखकर कि राम का रूप धर कर ही राम नहीं बेचे जा सकते, रावण का रूप धरकर भी राम बेचे जा सकते हैं। जैसे कैसे राम बेचने वाले रावण के नजदीक गया तो उससे जिज्ञासावश पूछ बैठा, ‘यार! कमाल की जिजीविषा है तुममें भी। इधर तुम्हारा एक रूप नेताजी के इंतजार में जलने को मूंछों पर ताव दिए अकड़ कर सगर्व खड़ा हुआ और इधर तुम घोड़े बेचकर राम बेच रहे हो? हो बड़े साहसी तुम भी! हर साल जलने के बाद भी अगले साल जलने को सहर्ष सज-धज कर तैयार हो जाते हो, आखिर कैसे?’ तो उसने मेरे यक्ष प्रश्न का सवाल देने के बदले पहले तो धंधे की बात की, ‘तो साहब कौन सी राम की तस्वीर दूं आपको? ये असली वाली हैं सारी की सारी सर! छापीं तो उन धर्मनिरपेक्षों ने भी थीं पर उनकी छापी तस्वीरों से वोट नहीं मिल पाए। इसलिए उन्होंने छापाखाना ही बंद कर दिया। कितनी दूं??’ ‘मतलब?? पर तुम!’ ‘मैं बहरूपिया नहीं। असली का रावण हूं। जिसे तुमने हर गली मोहल्ले में जला-जला कर अजर-अमर कर दिया है, ‘यह सुन वह मेरी शेयर बाजार की तरह धड़ाम हुई मूंछें खड़ी करने की कोशिश करने लगा। ‘असली का? तो राम की तस्वीरें क्यों बेच रहे हो?’ ‘बिजनेस इज बिजनेस डियर! तुम लोग भी तो आम जनता को मेड इन चाइना का सामान खरीदने से मना करते हो और खुद… बाजार पालिसी और देशभक्ति में बहुत अंतर होता है दोस्त! ‘तो पूरा राम क्यों नहीं बेच लेते?’ ‘मुझे तो बिजनेस करना है बस! सो मजे से कर रहा हूं। इसलिए अपने दहन में राम की तस्वीरें मजे से बेच रहा हूं। लोकतंत्र में राजा को भी मेहनत करके पेट भरना कोई बुरी बात तो नहीं न?… पर दिल से कहूं तो अब मैं भी इस समाज में बहुत घुटन महसूस करने लगा हूं दोस्त! पता नहीं क्यों?’ मैं दोस्त! मैं काहे का दोस्त तुम्हारा- कहां मैं राजपत्र में घोषित चरित्रवान! मूल्यों का पुजारी, मेरे तन-मन से पल-पल छलकती ईमानदारी और कहां तुम,  दूर रहो। राम की तस्वीरें बेचने से कोई राम नहीं हो जाता। ‘तो घर में राम की तस्वीरें लगाने से रामराज आ जाता है क्या?’ वह और भी मुंह में पता नहीं मुझे लेकर क्या पकपकाया और दूर से एक  की गोद में उसकी ओर आकर्षित हुए बच्चे में उसे जो राम की संभावना दिखी तो चार कदमों का एक करता उसकी ओर हो लिया।