देव समाज के सम्मान में

कला के वैभव में देवसमाज का हिमाचल में स्थान तथा छटा तय है। इस लिहाज से पारंपरिक मेले में देवसमाज के समागम को चित्रित करता मेहनताना केवल हमारी आस्था का प्रतीक नहीं है बल्कि सांस्कृतिक विरासत का पैगाम भी है। इतना जरूर है कि पिछले कुछ सालों से यह भी एक प्रशासनिक परंपरा की तरह तसदीक हो रहा कि कुल्लू अंतरराष्ट्रीय दहशरा में देवसमाज तथा बजंतरियों के वार्षिक बही खाते में क्या डाला जाए। बहरहाल देवताओं का दूरी भत्ता पच्चीस फीसदी दर से बढ़ रहा है, तो बजंतरियों के मानदेय में 15 प्रतिशत वृद्धि का होना इसलिए लाजिमी बन रहा है क्योंकि महंगाई का असर मंदिर तक है। वास्तव में देवसमाज की परंपराओं में शरीक होना ही हिमाचल का शृंगार है, तो इसे बरकरार रखने की कसौटियों में निरंतरता से विशेष प्रयत्नों की जरूरत है। कुल्लू दशहरा के दौरान अनुभूतियों के जिस संगम पर देवी-देवता स्वयं हाजिरी भरते हैं, उस आलौकिक दीप्ति का संरक्षण केवल वार्षिक हिसाब से नहीं हो सकता, बल्कि परिवेश की परिवर्तनशीलता तथा भौतिक तरक्की के साथ सामंजस्य बैठाने की जरूरत है। बेशक इस बार भी देवधुनों का गूंजदार रिकार्ड बन गया या हर साल की तरह बजंतरी समाज की प्रतिभा से कायल होता अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसे अपनी पलकों पर बैठकर लौट गया, लेकिन इसकी कलात्मक समीक्षा बेहद जरूरी है। कुल्लू दशहरा, मंडी शिवरात्रि, चंबा मिंजर या रेणुका जी जैसे अनेक सांस्कृतिक समारोहों के बीच देव परंपराएं, मानव समूह को अपने पारंपरिक इतिहास से अवगत कराती हैं। एक साथ बाईस सौ बजंतरियों के साथ कुल्लू दशहरा के संदर्भ ही श्रेष्ठ नहीं होते, बल्कि यह दृश्य एक साथ कई गांवों, कई परिवारों और हिमाचल के कलात्मक माहौल को अद्भूत बना देता है। कुछ इसी तरह दो सौ अस्सी के करीब देवी-देवताओं की उपस्थिति से हिमाचल की गौरवमयी पृष्ठभूमि अलंकृत होती है। पिछले कुछ सालों से कुल्लू दशहरा में महानाटियों के आयोजन से महिला सशक्तिकरण की तस्वीर और जीवन की लय से निकलता गीत-संगीत, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय रिकार्ड अपने नाम कर लेता है। इस बार भी स्वच्छता के संदेश पर कुल्लू नाटी ने अपने महालक्ष्य को साधा है। ऐसे में बढ़ते नजराने के आंकड़ों को हम किसी भी सूरत मुकम्म्ल नहीं कर पाएंगे, लेकिन इस बहाने सांस्कृतिक फर्ज का मूल्यांकन और अपनी संस्कृति का संरक्षण जरूर होता है। जरूरत यह तय करने की है कि देव परंपरा केवल चंद मेलों के केंद्र बिंदु में ही आस्था का निरुपण न बने, बल्कि इसे व्यापक स्तर पर राज्य के समर्पण व अभिनंदन का अभिप्राय बनाना होगा। यह शोध, अध्ययन तथा प्रकाशन का विषय भी है और समय-समय पर परंपराओं की अभिव्यक्ति का समावेश जनता के बीच होना ही चाहिए। प्रदेश में सांस्कृतिक समारोहों के नाम पर बाहरी कलाकारों पर खर्च हो रही मोटी रकम का वास्तविक उपयोग देव परंपराओं की विरासत को अंगीकार करने में होना चाहिए। कम से कम एक या दो दिन अगर ऐसे समागमों के लिए विभिन्न मेलों की भूमिका तराशी जाए, तो सारे राज्य की पंरपराएं एकत्रित होंगी। ग्रीष्मकालीन समारोहों या जिस तरह नित नए सांस्कृतिक समारोहों के आयोजन हो रहे हैं, उनके साथ लोक गीत संगीत, वाद्य यंत्रों का प्रदर्शन या बजंतरियों के माध्यम से रुहानियत के परिदृश्य में इजाफा किया जा सकता है। प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों की आय से मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा होते धन के बजाय, इसका कुछ भाग यदि हिमाचल की परंपराओं को सहेजने या प्रदर्शित करने में इस्तेमाल हो, तो सैलानियों के लिए संस्कृति सबसे बड़ा आकर्षण बन जाएगी।