निजीकरण के खतरे

अशोक पुरोहित

स्वतंत्र लेखक

देश में आमंत्रित पूंजी निवेश कहां से कहां तक देश को पहुंचा देगा इसका परिणाम समय में ही निहित है। आजादी के उपरांत तत्कालीन शासनकर्ताओं ने सुविचरित आर्थिक नीति के अधीन एक सुदृढ़ एवं संतुलित आर्थिक प्रक्रिया का संकल्प संजोया तथा इस हेतु मिश्रित अर्थ व्यवस्था का मार्ग अपनाया। संतुलित औद्योगिकरण सुनिश्चित करने के लिए प्रथम औद्योगिक नीति को स्वीकार करते समय सार्वजनिक उपक्रमों को विकास का आधार माना गया। प्रथम पंचवर्षीय योजना के अनुसार मात्र पांच इकाइयां ही सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन थी। इन इकाइयों का कुल पूंजी निवेश उस समय 25 करोड़ रुपए मात्र था। जो समय के साथ बढ़कर वर्ष 2017 के आसपास खरबों रुपए में हो गया तथा सार्वजनिक इकाइयों की संख्या बढ़ाकर 250 के आसपास हो गई। यह समयचक्र अब इन इकाइयों पर कहर बरपा रहा है तथा इन्हें बिना परिणाम जाने विदेशी पूंजीपति कसाइसों के हवाले किया जा रहा है। इसी हवाले के नाम तथा कथित वैश्वीकरण एवं पूंजीनिवेश दिया गया है। इतिहास इस बात का गवाह है कि गुलाम करने वालों को समय ने इस देश से खदेड़ बाहर किया, वहां अब आर्थिक दृष्टि से देशवासियों को गुलाम बनाने वालों को भी यही सर्वव्यापक काल बाहर करेगा। वर्तमान में देश के सर्वांगीण आर्थिक विकास की यात्रा को सुदृढ़ एवं सुचारू बनाना है, तो देश के आर्थिक विकास की कड़ी में भूमिका अदा करने वाली ऐसी देश की समस्त सार्वजनिक इकाइयों को तथा कथित विदेशी पूंजी निवेश की काली छाया से अलग करके उन्नत इकाइयों को संगठित कर मजबूत आधार प्रदान करना होगा। इसी से देश का औद्योगिक वातावरण विकसित होगा। तथाकथित वैश्वीकरण की आड़ में विदेशी निजी उद्यमियों से भारत के उद्योगों में अंधाधुंध पूंजीनिवेश जहां राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में सुधार हेतु सपना मात्र होगा, वहां पर यही पूंजी निवेश देश में उपलब्ध संसाधनों का विदेश व्यापारीकरण बन कर रह जाएगा। वर्तमान समय की दृष्टि से उनका यह मत तथ्य परक नहीं रहा है। अतः मिश्रित अर्थव्यवस्था का मूल सिद्धांत ही इस देश को गरीबी, विकास तथा विकास विश्व प्रतिस्पर्धा के लिए मार्ग प्रेरक होगा। अन्यथा इस देश को गरीबी, भुखमरी से निजात दिला पाना कठिन होगा। देश में अमीर-गरीब की बढ़ रही खाई को पाटने में असमर्थ रहेगा, जिसके कारण सामाजिक एवं देश पुर्नत्थान की कल्पना सपना मात्र होगा। देश के करोड़ों गरीब कामगारों ने नोटबंदी का इस लिए समर्थन किया कि देश से कालाधन समाप्त होकर देश के बाजार में लगे, ताकि उनकी मिश्रित अर्थव्यवस्था का सपना साकार हो सके। परंतु नौकरशाही सोच ने इसे ध्वस्त कर दिया, क्योंकि इस देश में जवाबदेही नाम की प्रथा का जन्म ही नहीं हुआ। अब यह प्रश्न उठता है कि देश में सार्वजनिक क्षेत्र को कैसे चुस्त-दुरुस्त किया जाए, इसके लिए सामाजिक चेतना राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभियान की प्रवलता द्वारा ही उसे चुस्त-दुरुस्त किया जा सकता है। इस सत्य से भी मुख मोड़ना अनुचित एवं देश के साथ द्रोह के समान होगा। देश के सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक इकाइयों बीमार एवं अव्यवस्था का शिकार है तथा वह अंतिम सांस ले रही है। उन्हें किसी दवा का भी अब असर होने वाला नहीं है। इसलिए कहां कैसे विदेशी पूंजीनिवेश आवश्यक है, इसे चिन्हित करना भी देश की सरकार की प्राथमिकताओं में होना चाहिए। क्योंकि नोटबंदी के बाद पर्याप्त पैसा बाजार में आया, वह कहां लुप्त हो गया, यह एक मूक प्रश्न बनकर रह गया है। अपितु जो इन समस्याओं को पैदा करने वाले हैं और वर्तमान में हो रही इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार पक्ष हैं, जिन्होंने अपने निजी स्वार्थों के चलते इस स्थिति को उत्पन्न किया है। ऐसे पक्षों को दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति एवं सामाजिक चेतना जागृत कर इन्हें बेनकाब करके स्थिति को उवारा जा सकता है। निजीकरण अब एक व्यावसाय है जिसमें न नौकरी की गारंटी न ही सामाजिक न्याय सुरक्षा की उपलब्धता रहती है। सजग तथा सचेत राष्ट्र की सरकार ही ऐसे दुष्परिणामों का सही अवलोकन कर इससे निजात दिला सकती है। यही समय की पुकार है।